Tuesday, April 11, 2023

तंत्र - विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-01


 तंत्रा-विजन-(सरहा के गीत)-भाग-पहला


पहला-प्रवचन--(One whose arrow is shot) (जिसका एक तीर नीशाने पर)

(सरहा के पदों पर दिए गए ओशो के अंग्रेजी प्रवचनों का दिनांक 21 अप्रैल1977 ओशो सभागारपूना में दिये गए बीस अमृत प्रवचनों में से पहले दस प्रवचनों तथा उसके शिष्यों द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों के उत्तरों का हिंदी अनुवाद)
सूत्र:

महान मंजुश्री को मेरा प्रणाम,
प्रणाम हैं उन्हें
जिन्होंने किया सीमित को अधीन

जैसे पवन के आघात से
शांत जल में उभर आती हैउतंग तरंगें,
ऐसे ही देखते हो सरहा
अनेक रूपों मेंहे राजन!
यद्यपि है वह एक ही व्यक्ति।

भेंगा है जो मूढ़
दिखते उसे एक नहींदो दीप,
जहां दृश्य और द्रष्टा नहीं दो,
अहा! मन करता संचालन
दोनों ही पदार्थगत सत्ता का।

गृहदीप यद्यपि प्रज्वलित,  जीते अंधेरे में नेत्रहिन,
सहजता से परिव्याप्त सभी,
निकट वह सभी के,
पर रहती सब परे मोहग्रस्त के लिए।

सहजता से परिव्याप्त सभीनिकट वह सभी के,
पर रहती सदा परे मोहग्रस्त के लिए।
सरिताएं हो अनेकयद्यपि,
सागर मे मिल होती है एक,
हों झूठ अनेक परंतु
होगा सत्य एकविजयी सभी पर।
मिटेगा अंधकारकितना ही हो गहन,
उदित होने पर एक ही सूर्य के।

इस प्रथ्वी पर जितने भी सदगुरु हुए हैं उनमें गौतम बुद्ध सर्वश्रेष्ठ हैं। ईसा क्राइस्टमहावीरमोहम्मद और अन्य कई महान सदगुरु हुए परंतु बुद्ध फिर भी इन सबमें श्रेष्ठ हैं। ऐसा नहीं है कि बुद्ध की ज्ञानोपलब्धि किसी अन्य की ज्ञानोपलब्धि से अधिक है--ज्ञान की उपलब्धि न कम होती है न ज्यादा। वस्तुतः गुणात्मक दृष्टि से तो बुद्ध भी उसी चेतना को प्राप्त हुए जिस चेतना को महावीरक्राइस्टजरथुस्त्रा तथा लाओत्सु प्राप्त हुए। अतः यह सवाल ही नहीं है कि कौन किससे अधिक ज्ञानोपलब्धि को प्राप्त हुआ। परंतु जहां तक सदगुरु होने का प्रश्न हैबुद्ध अतुलनीय हैंक्योंकि उनके द्वारा हजारों व्यक्तियों को ज्ञान उपलब्ध हुआ।
परंतु जहां तक सदगुरु होने का प्रश्न है, बुद्ध अतुलनीय हैं क्योंकि उनके द्वारा हजारों व्यक्तियों को ज्ञान उपलब्ध हुआ। यह घटना किसी अन्य गुरु के साथ कभी नहीं हुई। बुद्ध की परंपरा सबसे अधिक फलदायी रही है। आज तक बुद्ध का परिवार सर्वाधिक सृजनात्मक परिवार रहा है। बुद्ध एक विशाल वृक्ष की तरह हैं जिसकी अनेक शाखाएं हैंऔर प्रत्येक शाखा फलवती रही हैफूलों से लदी हुई है।
महावीर एक तरह से अधिक आंचलिक या स्थानीय घटना के रूप में रहे। कृष्ण की दुर्गति पंडितों और शास्त्रज्ञों के हाथों हुई। क्राइस्ट को पुरोहितों ने पूरी तरह नष्ट कर दिया। बहुत कुछ संभव था परंतु न हो पाया। बुद्ध इस दृष्टि से अत्यंत भाग्यशाली सिद्ध हुए। ऐसा नहीं कि पुरोहितों और पंडितों ने बुद्ध पर भा अपने हथकंडे नहीं आजमाएउन्होंने जो कुछ किया जा सकता था किया। परंतु बुद्ध ने अपनी शिक्षा कुछ इस ढंग निर्मित की थी कि उसका नष्ट होना असंभव था। इसलिए वह अभी तक जीवत है। पच्चीस सौ वर्ष बीत जाने पर भा कुछ फूल इस वृक्ष पर अभी भी खिल उठते है। बुद्ध का वृक्ष अभी भी हरा-भरा है। अभी भी जब बसंत आता है तो यह वृक्ष अपनी सुगंध फैला देता हैअभी भी उसमें फूल खिलते है।
सरहा इसी वृक्ष का एक फूल है। सरहा का जन्म बुद्ध के कोई दो सौ वर्ष बाद हुआ था। वे एक दूसरी ही शाखा से उदभूत परंपरा के अंग थे। एक शाखा चलती है महाकश्यप से बोधिधर्म तकजिसमें से झेन का जन्म हुआ और जो अभी तक फूलों से भरी है। दूसरी शाखा निकलती है बुद्ध से उनके पुत्र राहुलभद्रराहुलभद्र से श्री कीर्तिश्री कीर्ति से सरहाऔर सरहा से नागार्जुन तक यह तंत्र की शाखा तिब्बत में आज भी फूल दे रही है।
तंत्र ने तिब्बत को बदल दियाऔर जिस प्रकार बोधिधर्म झेन के जनक हैं उसी प्रकार सरहा तंत्र के जनक हैं। उसी प्रकार सरहा तंत्र के जनक हैं। बोधिधर्मा ने चीनकोरिया तथा जापान पर विजय पायीसरहा ने तिब्बत को विजय किया।
सरहा के ये पद अति सूंदर हैं। वे तंत्र का मूल आधार हैं। लेकिन पहले तुम्हें यह समझना होगा कि तंत्र का जीवन के प्रति दृष्टिकोण क्या हैंजीवन दर्शन क्या हैं।
तंत्र का बिलकुल आधारभूत--परंतु अत्यंत विद्रोहात्मकअत्यंत क्रांतिकारी दर्शन यह है कि संसार ऊंच और नीच में बंटा हुआ नहीं हैवह एक हैसंयुक्त है। इस संसार में उत्कृष्ट और निकृष्ट दोनों हाथ में हाथ डाले हुए हैं। अच्छे में बुरा समाहित है और बुरे में अच्छा मिला हुआ है। चूंकि क्षण में भी निकृष्ट छिपा हुआ हैइसलिए जो निकृष्ट है उसका इंकार नहीं किया जाना चाहिए। उसकी निंदा नहीं करनी चाहिएउसे मार डालना चाहिए। जो निकृष्ट है उसका रूपांतरण होना चाहिए। जो निकृष्ट है उसे यदि ऊपर उठने का मौका दिया जाए तो वह भी श्रेष्ठ बन सकता है। भगवान और शैतान के बीच ऐसी कोई खाई नहीं है जिस पर सेतु न बनाया जा सके। शैतान के हृदय की गहराई में भी परमात्मा छिपा हुआ है। एक बार हृदय धड़कना शुरू हो जाए तो शैतान परमात्मा बन जाता है।
यही कारण है कि शैतान के लिए अंग्रेजी में दिया गया शब्द डेविल’ जिस धातु से बना है उसका भी वही अर्थ होता है जो भगवान के लिए दिए गए शब्द डिवाइन’ से होता है। डेविल’ शब्द ही डिवाइन’ से बना है। शैतान का मतलब तो इतना है कि जो अभी परमात्मा नहीं हुआ। शैतान न तो परमात्मा के विरोध में हैन वह परमात्मा को नष्ट करने के प्रयास में हैवस्तुतः शैतान तो परमात्मा की खोज में है। शैतान तो परमात्मा बनने के मार्ग पर हैशत्रु कहांवह तो बीज है। परमात्मा अपने पुरजोश में खिला हुआ वृक्ष हैजब कि शैतान अभी बीज है। परंतु बीज में ही वृक्ष छिपा हैऔर बीज वृक्ष का दुश्मन नहीं है। असलियत तो यह है कि बिना बीज के वृक्ष हो ही नहीं सकता। बीज वृक्ष विरोधी नहीं हैबड़ी घनी मित्रता है दोनों मेंदोनों एक साथ जुड़े हैं।
जहर और अमृत दोनों एक ही शक्ति के दो रूप हैंवैसे ही जैसे जीवन और मृत्युदिन और रातप्रेम और घृणासंभोग और समाधि।
तंत्र कहता है: किसी चीज की निंदा न करोनिंदा करने की वृत्ति ही मूढ़तापूर्ण है। निंदा करने से तुम अपने विकास की पूरी संभावना रोक देते हो। कीचड़ की निंदा न करोक्योंकि उसी में कमल छिपा है। कमल पैदा करने के लिए कीचड़ का उपयोग करो। माना कि कीचड़ अभी तक कीचड़ है कमल नहीं बना हैलेकिन वह बन सकता है। जो भी व्यक्ति सृजनात्मक हैधार्मिक हैवह कमल को जन्म देने में कीचड़ की सहायता करेगाजिससे कि कमल की कीचड़ से मुक्ति हो सके।
सरहा तंत्र-दर्शन के प्रस्थापक हैं। मानव-जाति के इतिहास की इस वर्तमान घड़ी में जब कि एक नया मनुष्य जन्म लेने के लिए तत्पर हैजब कि एक नई चेतना द्वार पर दस्तक दे रही हैसरहा का तंत्र-दर्शन एक विशेष अर्थवत्ता रखता है। और यह निश्चित है कि भविष्य तंत्र का हैक्योंकि द्वंदात्मक वृत्तियां अब और अधिक मनुष्य के मन पर कब्जा नहीं रखा सकतीं। इन्हीं वृत्तियों ने सदियों से मनुष्य को अपंग और अपराध-भाव से पीड़ित बनाए रखा है। इनकी वजह से मनुष्य स्वतंत्र नहींकैदी बना हुआ है। सुख या आनंद तो दूर इन वृत्तियों के कारण मनुष्य सर्वाधिक दुखी है। इनके कारण भोजन से लेकर संभोग तक और आत्मीयता से लेकर मित्रता तक सभी कुछ निंदित हुआ है। प्रेम निंदित हुआशरीर निंदित हुआएक इंच जगह तुम्हारे खड़े रहने के लिए नहीं छोड़ी है। सब-कुछ छीन लिया है और मनुष्य को मात्र त्रिशंकु की तरह लटकता छोड़ दिया है ।
मनुष्य की यह स्थिति अब और नहीं सही जा सकती। तंत्र तुम्हें एक नई दृष्टि दे सकता हैइसीलिए मैंने सरहा को चुना है। मुझे जिससे बहुत प्रेम है सरहा उनमें से एक हैयह मेरा उनके साथ बड़ा पुराना प्रेम-संबंध है। तुमने शायद सरहा का नाम भी न सुना होपरंतु वे उन व्यक्तियों में से हैं जिन्होंने जगत का बड़ा कल्याण किया हो ऐसे अंगुलियों पर गिने जाने वाले दस व्यक्तियों में मैं सरहा का नाम लूंगायदि पांच भी ऐसे व्यक्ति गिनने हों तो भी मैं सरहा को नहीं छोड़ पाऊंगा।
सरहा के इन पदों में प्रवेश करने से पहले कुछ बातें सरहा के जीवन के विषय में जान लेनी आवश्यक हैं। सरहा का जन्म विदर्भ महाराष्ट्र...का ही अंग हैपूना के बहुत नजदीक। राजा महापाल के शासनकाल में सरहा का जन्म हुआ। उनके पिता बड़े विद्वान ब्राह्मण थे और राजा महापाल के दरबार में थे। पिता के साथ उनका जवान बेटा भी दरबार में था। सरहा के चार और भाई थेवे सबसे छोटे परंतु सबसे अधिक तेजस्वी थे। उनकी ख्याति पूरे देश में फैलने लगी और राजा तो उनकी प्रखर बुद्धिमत्ता पर मोहित सा हो गया था।
चारों भाई भी बड़े पंड़ित थे परंतु सरहा के मुकाबले में कुछ भी नहीं। जब वे पांचों बड़े हुए तो चार भाइयों की तो शादी हो गईसरहा के साथ राजा अपनी बेटी का विवाह रचाना चाहता था। परंतु सरहा सब छोड़-छाड़ कर संन्यास लेना चाहते थे। राजा को बड़ी चोट पहुंचीउसने बड़ी कोशिश की सरहा को समझाने की--वे थे ही इतने प्रतिभाशाली और इतने सुंदर युवक। जैसे-जैसे सरहा की ख्याति फैलने लगी वैसे राजा महापाल के दरबार की भी ख्याति सारे देश में फैलने लगी। राजा को बड़ी चिंता हुईवह इस युवक को संन्यासी बनते नहीं देखना चाहता था। वह सरहा के लिए सब-कुछ करने को तैयार था। परंतु सरहा ने अपनी जिद न छोड़ी और उसे अनुमति देनी पड़ी। वह संन्यासी बन गयाश्री कीर्ति का शिष्य बन गया।
श्री कीर्ति बुद्ध की सीधी परंपरा में आते हैंगौतम बुद्धफिर अनके पुत्र राहुल भद्रऔर फिर आते हैं श्री कीर्ति। सरहा और बुद्ध के बीच सिर्फ दो ही गुरु हैंबुद्ध से वे बहुत दूर नहीं हैं। वृक्ष अभी बहुत ही हरा-भरा रहा होगाउसकी तरंगें अभी बहुत ताजी-ताजी रही होंगी। बुद्ध अभी-अभी जा चुके थेवातावरण उनकी सुगंध से भरा रहा होगा।
राजा को और धक्का तब लगा जब उसे पता चला कि ब्राह्मण होते हुए भी सरहा ने हिंदू संन्यासी बनना छोड़ एक बौद्ध को अपना गुरु चुना। इस घटना से सरहा का परिवार भी बहुत चिंतित हुआ। वे सब सरहा के दुश्मन हो गएक्योंकि यह तो ठीक नहीं हुआ था। और बाद में तो हालत और भी बिगड़ गई जिसको हम आगे चल कर देखेंगे।
सरहा का असली नाम था राहुल जो उनके पिता ने रखा था। वे राहुल से सरहा कैसे बने यह हम आगे देखेंगेवह बड़ी प्रतिकर कथा है। तो जब सरहा श्री कीर्ति के पास पहुंचेपहली बात जो श्री कीर्ति ने उनसे कही वह थी: भूल जाओ तुम्हारे वेदों कोऔर तुम्हारा सारा ज्ञानऔर वह सारी बकवास’ सरहा के लिए यह बड़ा कठिन थापरंतु वे सब-कुछ करने के लिए तैयार थे। श्री कीर्ति के व्यक्तित्व में बड़ा अनूठा आकर्षण था। सरहा ने अपना सारा ज्ञान छोड़ दियावे पुनः अज्ञानी हो गए।
यह त्याग बड़े से बड़े त्यागों में से एक थाधन छोड़ना आसान हैबड़ा राज्य छोड़ना आसान हैपरंतु ज्ञान छोड़ना बड़ा कठिन है इस संसार में। पहली बात तो यह कि उसे कैसे छोड़ा जाएवह तो भीतर है तुम्हारे। तुम अपना राज्य छोड़ सकते होतुम हिमालय जा सकते होतुम अपना पूरा धन बांट सकते होपरंतु तुम अपना ज्ञान कैसे छोड़ोगे?
और फिर पुनः सीखे को अनसीखा करनाफिर बच्चे की तरह भोला बनना....परंतु सरहा इसके लिए तैयार थे।
साल पर साल बीतते गए और धीरे-धीरे सरहा ने अपना सारा ज्ञान पोंछ डालावे बड़े ध्यानी बन गए। जैसे पहले उनकी ख्याति महा पंड़ित के रूप में फैली थी वैसे अब उनकी ख्याति महान साधक के रूप में फैलने लगी। लोग दूर-दूर से इस नवयुवक की झलक पाने के लिए आने लगे जिससे एक नये पत्ते सा या घास पर पड़े ओस के बिंदुओं सा भोलापन आ गया था।
एक दिन अचानक सरहा को ध्यान में यह दिखाई दिया कि बाजार में एक स्त्री बैठी हुई है जो उनकी सच्ची गुरु बनने वाली है। श्री कीर्ति ने तो केवल उन्हें मार्ग पर लगा दिया हैअसली शिक्षा तो उन्हें स्त्री से ही मिलने वाली है। अब यह जरा समझने जैसी बात है। एक तंत्र ही है जिसने कभी कट्टर पुरुषत्व नहीं दिखाया। सच तो यह है कि बिना किसी ज्ञानी स्त्री का सहयोग से तंत्र के अटपटे जगत में प्रवेश करना ही असंभव है।
सरहा को बाजार में बैठी हुई स्त्री दिखाई दी। पहली बात तो स्त्री और फिर बाजार में! तंत्र बाजार में ही फलता-फूलता हैबिलकुल जीवन की सघनता में। उसका दृष्टिकोण नितांत विधायक हैनकारात्मक है ही नहीं। तो सरहा खड़े हो गएश्री कीर्ति ने पूछा: कहां जा रहे हो?’ सरहा ने कहा: आपने मुझे मार्ग दिखाया। आपने मेरा ज्ञान छीना। आपने आधा काम पूरा कियाआपने मेरी स्लेट पोंछ डाली। अब मैं बचा हुआ पूरा करने को तैयार हूं। श्री कीर्ति हंसेउन्होंने आशीर्वाद दिया और सरहा ने विदा ली।
सरहा बाजार पहुंचे। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआसचमुच वही स्त्री दिखाई दी जिसे उन्होंने ध्यान में देखा था। वह स्त्री तीर बना रही थीतीर बनाने वाली थी।
तंत्र के बारे में जो तीसरी बात खयाल में रखनी चाहिए वह यह कि तंत्र के अनुसार कोई व्यक्ति जितना ही सुसंस्कृतजितना सभ्य होगा उतनी ही उसके तांत्रिक रूपांतरण की संभावना कम होगी। जितना ही व्यक्ति कम सभ्य और अधिक आदिम होगा उतना ही अधिक जानदार होगा। जितने ही तुम सभ्य बनते हो उतने ही तुम प्लास्टिक के बन जाते होतुम कृत्रिम बन जाते होजरूरत से ज्यादा परिष्कृत बन जाते होतुम्हारी जड़ें धरती में ही खो जाती हैं। तुम्हें संसार की गंदगी से डर लगता है इसलिए तुम उससे हट कर जीने लगते होतुम ऐसा दिखावा करने लगते हो जैसे तुम इस संसार के ही नहीं हो। तंत्र कहता है: जो अभी भी असभ्य हैंअसंस्कृत हैंवे अधिक जानदार हैंउनमें अधिक तेजस्वीता है। और यही आधुनिक मनस्विदों का भी कहना है। एक नीग्रो किसी अमरीकन की तुलना में अधिक जानदार है और इसी बात से अमरीकी डरता है। अमरीकन नीग्रो से बहुत डरता है। डर इस बात का है कि अमरीकन तो बन गया है बिलकुल प्लास्टिकजब कि नीग्रो अभी भा जानदार हैअभी भा पार्थिव है।
अमरीका में काले और गोरों का संघर्ष सच में काले और गोरे का नहीं हैयह संघर्ष असली और नकली के बीच है। और गोरा अमरीकन मूलतः बड़ा घबड़ाया हुआ हैउसे यह डर है कि अगर नीग्रो को रोका न गया तो वह एक न एक दिन अमरीकन अपनी स्त्री खो बैठेगा। नीग्रो अधिक प्राणवान हैउसमें अधिक काम-शक्ति हैवह अधिक सजीव हैउसकी ऊर्जा में अभी भी उद्याम आवेग है। और सभ्य जातियों में एक डर यह समाया हुआ है कि कहीं वे अपनी स्त्रियां न खो बैठें। वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि अगर बहुत सारे ऐसे प्राणवान व्यक्ति उपलब्ध हो गए तो वे अपनी स्त्रियों को वश में न रखा पाएंगे।
तंत्र कहता है: अदिवासियों में तंत्र के विकास की पूरी संभावना है। तुम्हारा विकास गलत दिशा में हुआ है। उनका अभी विकास नहीं हुआवे अभी भी सही दिशा चुन सकते हैंउनमें संभावनाएं अधिक हैं। और उनके पास अनकिया करने के लिए कुछ भी नहीं हैइसलिए वे सीधे बढ़ सकते हैं। एक तो तीर बनाने वाली स्त्री के पास जाना प्रतीकात्मक है। जो पंडित हैं उसे प्राणवान के पास जाना ही होगानकली को असली के पास जाना ही पड़ेगा।
सरहा ने उस स्त्री को देखाजवान थीउत्यंत तेजस्वी और प्राणवान। तीर का फल बना रही थीन दाहिने देखा रही थी न बाएंबस तीन बनाने में तल्लीन थी। सरहा को तत्काल उस स्त्री के सान्निध्य में एक असाधारण अनुभूति हुईऐसी अनुभूति उन्हें पहले कभी नहीं हुई थी। यहां तक कि उनके गुरु श्री कीर्ति भी उस स्त्री के आगे फीके पड़ गए। उसमें एक अदभुत ताजगी थी।
श्री कीर्ति बड़े दार्शनिक थेऔर यद्यपि उन्होंने सरहा से अपना सारा ज्ञान छोड़ देने के लिए कहा थाफिर भी वे स्वयं अभी तक ज्ञानी थे। उन्होंने सरहा से सारे वेद और शास्त्र छोड़ देने के लिए कहा थापरंतु उनके अपने शास्त्र थे और अपने वेद थे। यद्यपि वे दर्शन विरोधी थे लेकिन उनका दर्शन-विरोध भी एक तरह का दर्शन ही था। अब यह स्त्री न तो दार्शनिक है और न ही दर्शन-विरोधीजो यह तक नहीं जानती कि दर्शन क्या चीज हैजो अपनी आनंदमग्नता में दर्शन और विचार के जगत से बिलकुल बेखबर है। यह एक ऐसी स्त्री है जो कर्मनिष्ठ है और जो अपने काम में पूरी तरह डूबी हुई है।
 सरहा ने बड़े गौर से देखातीर तैयार थास्त्री ने एक आंख बंद कर एक अदृश्य लक्ष्य का भेद करने की मुद्रा बना ली थी। सरहा ने जरा और नजदीक से देखा। अब असल में वहां कोई लक्ष्य वगैरह कुछ नहीं थाउसने सिर्फ एक मुद्रा बना ली थी। उसकी एक आंख बंद और दूसरी आंख खुली हुई थी और वह किसी अदृश्य निशान को ताक रही थी जो वहां था ही नहीं। सरहा को इसमें कोई संकेत दिखाई देने लगा। मुद्रा प्रतिकात्मक थीउन्हें धुंधली सी प्रतीति होने लगी थी परंतु स्पष्ट कुछ नहीं हो रहा था।
तो सरहा ने उस स्त्री से पूछा कि क्या तीर बनाना तेरा व्यवसाय हैयह सुन कर उस स्त्री को बड़े जोर की उद्याम हंसी आई और उसने कहा: अरे मूढ़ ब्राह्मण! तूने वेदों को तो छोड़ दिया परंतु अब बुद्ध के बचन धम्मपद को पूजना शुरू कर दिया हैतो फर्क क्या हुआतूने किताबें बदल ली हैंदर्शन बदल लिया हैपरंतु अरे मूढ़ तू तो यह सारा समय वैसा का वैसा ही रहा।
सरहा को यह सुन कर बड़ा धक्का लगाइस तरह से उनके साथ पहले किसी ने बात नहीं की थी। एक असंस्कृत स्त्री ही इस प्रकार बोल सकती थी। और जिस तरह वह हंसी थी वह इतना असभ्य थाइतना आदिमपरंतु फिर भी उसमें ऐसा कुछ था जो बहुत ही प्राणवान था और सरहा उस स्त्री के प्रति ऐसे खिंचे जा रहे थे जैसे लोहा चुंबक के प्रति खिंचता है।
उस स्त्री ने फिर कहा, ‘क्या तुम अपने आप को बौद्ध मानते हो?’ सरहा ने बौद्ध साधुओं के पीले वस्त्र पहन रखे होंगे। वह स्त्री फिर हंसीऔर कहने लगी, ‘बुद्ध जो कहते हैं उसका अर्थ सिर्फ कर्म द्वारा जाना जा सकता हैन शब्दों द्वारा और न पुस्तकों द्वारा। क्या अभी तक तुम्हारा जी नहीं भराक्या अभी तक तुम्हें इनसे ऊब पैदा नहीं हुईअब इस तरह की खोज में और ज्यादा समय बरबाद मत करोचलो मेरे साथ।
और एकाएक कुछ हुआएक भीतरी संवाद जैसा कुछ घट गया। सरहा को इस प्रकार की अनुभुति पहले कभी नहीं हुई थी। उस घड़ी में वह स्त्री जो कर रही थी उसका आध्यात्मिक अर्थ उन्हें एकाएक स्पष्ट हुआ। सरहा ने देखा कि न वह बाएं देख रही थी न दाएंउसकी दृष्टि मध्य में ग़ढ़ी हुई थी।
पहली बार उनकी समझ में आया कि बुद्ध जिसे मध्य में होना कहते हैं उसका अर्थ हैं: अति से बचना। पहले वे दार्शनिक थेअब वे दर्शन-विरोधी बन गए है--एक अति से दूसरी अति। पहल वे एक चीज की पूजा करते थेअब वे उसके बिलकुल विरोधी वस्तु की पूजा कर रहे हैं--परंतु पूजा जारी है। तुम बाएं से दाएं जा सकते हो या दाएं से बाएं परंतु इससे तुम्हारा कोई फायदा नहीं होगा। तुम सिर्फ एक घड़ी के पेंडूलम कि तरह बाएं से दाएं और दाएं से बाएं घूमते रहोगे।
और क्या तुमने ध्यान से देखा है?--जब पेंडुलम दाहिने जाता है तब वह केवल बाएं जाने के लिए गति पैदा कर रहा होता हैऔर जब वह बाएं जाता हैं तब दाएं जाने के लिए गति पैदा कर रहा होता है। और इस तरह घड़ी चलती रहती है। और संसार चलता रहता है। मध्य में होने का अर्थ है कि पेंडुलम बस मध्य में लटका हुआ हैन दाएं जाता हैं न बाएं। तब घड़ी थम जाती हैंतब संसार थम जाता हैतब कोई समय नहीं रहता--तब एक समयरहितता होती है।
यह सब सरहा ने श्री कीर्ति के मुंह से कई बार सुना थाउन्होंने इसके विषय में पढ़ा भी थाउस पर विचार किया थामनन किया थाइस विषय में औरों से चर्चा भी की थी कि मध्य में होना ही सबसे अधिक उचित हैं। परंतु यहां पहली बार उन्होंने इस सत्य को घटते हुए देखा: वह स्त्री न बाएं देख रही थी न दाएंवह सिर्फ मध्य में देख रही थीउसका पूरा ध्यान मध्य में केंद्रित था।
मध्य ही वह बिंदु हैं जहां से अतिक्रम होता है। इस बात पर जरा विचार करोजरा मनन करोअपने जीवन में देखो। आदमी धन के पीछे भाग रहा हैंपागल की तरहधन ही उसका परमात्मा है.....
एक स्त्री ने दूसरी स्त्री से पूछा: तुमने अपने प्रेमी को क्यों छोड़ दिया क्या बात हुईमुझे तो लगा था कि तुम्हारी सगाई हो चुकी है और अब तुम्हारा विवाह होने वाला है--हुआ क्या?’
दूसरी स्त्री ने जवाब दिया: हमारे संबंध टूटने का कारण यह है कि हमारे धर्म अलग-अलग हैं।
पूछने वाली जरा हैरान हुईक्योंकि वह जानती थी दोनों कैथोलिक हैंतो उसने कहा, ‘तुम्हारे धर्म अलग-अलग है इससे तुम्हारा क्या मतलब हैं?‘
स्त्री ने कहा: मैं धन की पूजा करती हूंऔर उसकी जेब खाली है।
ऐसे लोग हैं जिनके लिए धन ही परमात्मा है। एक न एक दिन यह परमात्मा बेकार साबित हो जाता है--वह बेकार साबित होकर रहेगा। धन कभी परमात्मा बन नहीं सकता। वह मात्र तुम्हारा भ्रम थातुम्हारा प्रक्षिप्तिकरण था। एक न एक दिन तुम ऐसी जगह पहुंच जाते हो जहा से तुम्हें दिखाई देने लगता है कि उसमें परमात्मा है ही नहींकि उसमें कुछ भी नहीं हैकि तुम सिर्फ अपना जीवन गंवा रहे थे। तब तुम उसके विरोध में हो जाते होतब तुम एक विरोधी रूप अपना लेते होतुम धन-विरोधी बन जाते हो। तब तुम धन छोड़ने लगते होतुम उसे छूते भी नहीं। तुम निरंतर उसकी पकड़ में रहते होअब तुम धन के विरुद्ध हो जाते होपरंतु उसकी पकड़ फिर भा बनी रहती है। तुम बाएं से दाएं हट गएपरंतु तुम्हारी चेतना का केंद्र अभी भी धन ही है।
तुम एक इच्छा छोड़ कर दूसरी पकड़ सकते हो। पहले तुम बहुत सांसारिक थेकिसी दिन तुम अध्यात्मवादी बन सकते हो--परंतु रहते तुम वही के वही होतुम्हारा रोग बना रहता है। बुद्ध कहते हैं: संसार में होना तो सांसारिक होना है हीपरंतु अध्यात्मवादी होना भी सांसारिक होना है। धन कमाने के लिए जीना तो धन के लिए पागल होना है हीलेकिन धन के विरुद्ध होना भी धन के प्रति पागल होना हैसत्ता की खोज तो मूर्खता है हीपरंतु उससे भागना भी मूर्खता है। विवेक का मतलब ही है दो अतियों के मध्य होना।
पहली बार सरहा ने वह घटते हुए देखा जो उन्होंने श्री कीर्ति में भी नहीं देखा था। सच में वह घट रहा थाऔर उस स्त्री ने ठीक ही कहा था, ‘तुम केवल कर्म द्वारा सीख सकते हो।’ और वह इतनी तल्लीन थी कि उसने सरहा को देखा तक नहीं जो उसे वहां खड़े-खड़े देख रहे थे। वह इतनी तल्लीन थीअपने काम में इतनी डूबी हुई थी--यही बुद्ध का संदेश है: कम में पूरे डूबो जिससे कर्म से ही मुक्ति मिल जाए।
कर्म बनता ही इसलिए है क्योंकि तुम उसमें उतरते नहीं हो। अगर तुम कर्म में पूरे उतर जाते तो उसका कोई निशान नहीं बचता। कोई भी काम अगर पूरा कर लो तो वह हमेशा के लिए खत्म हो जाता हैफिर उसकी कोई स्मृति नहीं बचती। अधूरा काम पीछा करता ही रहता हैऔर मन उसे पूरा किए बिना छोड़ना नहीं चाहता।
मन सदा चीजें पूरी करने के लिए तत्पर रहता हैकोई भी चीज पूरी कर लो और मन विसर्जित हो जाता है। अगर तुम अपने काम पूरे करते रहो तो एक दिन तुम पाओगे कि मन रहा ही नहीं। मन भूतकाल में घटे अधूरे कर्मो का संग्रह हैं।
तुम्हें किसी स्त्री को प्रेम करना था और तुमने नहीं कियाअब वह स्त्री मर चुकी है। तुम्हें अपनी गलतियों के लिये पिता से क्षमा मांगनी थीअब वे जिंदा नहीं है।
अब उसकी पीड़ा बनी रहेगीवह बात भूत की तरह पीछा करेगी। अब तुम असहाय--क्या करूंअब किसके पास जाकर क्षमा मांगूंतुम्हें किसी मित्र के साथ भलाई करनी थी परंतु फिर तुम उसके प्रति संकुचित हो गए। तुम्हारे मन में अपराध-भाव बन गयातुम पश्चाताप करने लगे। और इस तरह चलता रहता है।
कोई भी काम पूरी तरह कर लो और तुम उससे मुक्त हो जाते होफिर तुम लौट कर नहीं देखते। असली आदमी पीछे लौट कर नहीं देखताक्योंकि वहां देखाने के लिए कुछ है ही नहीं। उसके सर पर कुछ हावी नहीं रहतावह केवल आगे बढ़ता चलता है। उसकी आंखों पर भूतकाल का पर्दा नहीं गिरा होताउसकी दृष्टि में धुंधलापन नहीं होता। उस स्पष्टता में किसी को वास्तविकता को बोध होता है।
तुम अपने अधूरे किए हुए कर्मों से इतने चिंतित रहते होतुम जैसे एक कबाड़खाना हो। एक चीज अधूरी यहाएक चीज अधूरी वहा--कोई चीज पूरी नहीं। क्या कभी तुमने इस बात पर ध्यान दिया हैक्या तुमने कभी कोई चीज पूरी की हैया सब अधूरा-अधूराअभी एक काम पूरा हुआ नहीं और दूसरा शुरू कर देते होऔर अभी वह पूरा हुआ नहीं कि तीसरा शुरू कर देते हो। इस तरह तुम अधूरे कर्मों के बोझ के नीचे दबते चलते हो। इसी को कर्म कहते हैं--कर्म का मतलब है अधूरा कृत्य।
पूर्ण बनते ही तुम मुक्त हो जाते हो।
वह स्त्री पूर्णतः डूबी हुई थी। इसीलिए वह इतनी तेजस्वी और सुदंर लग रही थी। वैसे तो वह एक साधारण स्त्री ही थीपरंतु उसका सौंदर्य अलौकिक था। उसका सौंदर्य इसीलिए खिला हुआ था क्योंकि वह अपने काम में पूरी तरह डूबी हुई थीक्योंकि वह अतिवादी नहीं थी। उस
का सौंदर्य निखर रहा था इसीलिए क्योंकि वह मध्य में थीसंतुलित थी। सतुंलन से शोभा आती है।
पहली बार सरहा को एक ऐसी स्त्री मिली थी जिसने न केवल शारीरिक बल्कि आध्यात्मिक सौंदर्य था। स्वभावतः वे समर्पित हो गए। कहना चाहिए समर्पण हो गया। वह स्त्री जो भी कर रह थी उसमें सरहा पूरा डूब गएऔर उसे देख कर वे पहली बार समझे कि इसे कहते हैं ध्यान। ध्यान का यह अर्थ नहीं है कि तुम किसी खास समय पर बैठ कर राम-राम जपोया कि तुम चर्च जाओया मंदिरमस्जिद जाओ। ध्यान का अर्थ है जीवन में पूरी तरह संलग्न होनासाधारण सा काम भी इतनी तन्यमता से करना कि काम में से गहराई झलकने लगे।
पहली बार सरहा की समझ में आया कि ध्यान क्या हैध्यान तो वह भी करते थेबड़ी मेहनत करते थेलेकिन यहा पहली बार ध्यान वस्तुतः घटित हुआ थाएक दम सजीव। वे उसे अनुभूत कर सकते थेछू सकते थेध्यान जैसे साकार हो उठा था। और तब उन्हें याद आया कि एक आंख बंद और दूसरी आंख खुली रखना यह एक बौद्ध प्रतीक है।
बुद्ध कहते हैं--और आज के मनस्विद उनसे सहमत होंगेपच्चीस सौ साल बाद मनोविज्ञान उस नतीजे पर पहुंचा है जहां बुद्ध इतने पहले पहुंच चुके थे। बुद्ध कहते हैंहमारा आधा मस्तिष्क तर्क करता है और आधा मस्तिष्क अंतर्बोध (संप्रेषण) करता है। हमारा मस्तिष्क दो भागों में या दो क्षेत्रों में बंटा हुआ है। बायां हिस्सा सोचता हैतर्क करता हैतर्कबद्ध दलील करता हैविश्लेषण करता है। वह दर्शन और धर्मशास्त्र का क्षेत्र हैजिसमें शब्द ही शब्द भरे पड़े हैंजिसमें दलीलें ही दलीलें हैं। तर्क और निष्कर्ष है वह बायां मस्तिष्क बिलकुल अरस्तु जैसा है।
दाहिना मस्तिष्क अंतर्बोध करता हैवह काव्यात्मक प्रेरणा का स्रोत हैवह द्रष्टा हैवह पूर्व-चेतनापूर्व-बोध का केंद्र है। तुम बहस नहीं करतेतुम बस जान जाते हो। तुम अनुमान नहीं लगातेतुम्हें बस बोध हो जाता है। पूर्व-बोध की स्थिति का अर्थ ही यह हैवह बस होता है।
सत्य की प्रतीति दाहिने मस्तिष्क द्वारा होती है जबकि सत्य का अनुमान बाएं मस्तिष्क द्वारा। लेकिन अनुमान-अनुमान हैवह अनुभव नहीं है।
एकाएक सरहा को ख्याल आया कि उस स्त्री ने प्रतिकात्मक रूप में तर्क की आंख बंद कर ली थी और दूसरी आंख प्रेमआत्मज्ञान और बोध के प्रतिक के रूप में खोल रखी थी। और फिर उन्हें वह जिस मुद्रा में थी उसका ध्यान आया।
अज्ञात और अदृश्य को लक्ष्य बनाकर हम एक यात्रा पर चल पड़े हैंवह जानने के लिए जो नहीं जाना जा सकता। वहीं सच्चा-ज्ञान हैवह जानना जो कभी जाना नहीं जा सकताउसकी अनुभूति करना जो कभी अनुभूत नहीं किया जा सकतावह पाना जो कभी पाया नहीं जा सकता। ऐसी असंभव अभीप्सा ही व्यक्ति को धार्मिक बनाती है। हांअसंभव अभीप्सालेकिन असंभव’ से मेरा यह मतलब नहीं है कि वह कभी घटित होगी ही नहीं; ‘असंभव’ से मेरा मतलब यह है कि वह तब तक संभव नहीं है जब तक तुम पूरे के पूरे रूपांतरित नहीं हो जाते। जैसे तुम हो वैसे तो यह संभव नहीं लेकिन होने के भी अलग-अलग ढंगहोते है। और तुम एक बिलकुल ही नये आदमी बन सकते हो....तब वह संभव है। वह एक दूसरे ही ढंग के आदमी के लिए संभव है। इसीलिए जीसस कहते हैं: जब तक तुम्हारा पुनर्जन्म नहीं होता तब तक तुम नहीं जान सकोगे। एक नया आदमी ही वह जान सकता है।
तुम मेरे पास आते होलेकिन तुम नहीं जान सकोगे। पहले मुझे तुम्हारी हत्या करनी होगीपहले मुझे तुम्हारे साथ कठोर बनना होगाखतरनाक बनना होगातुम्हें पहले मिटना होगा। और तब एक नये मनुष्य का जन्म होता हैएक नई चेतना जन्म लेती हैक्योंकि तुममें कुछ है जो अविनाशी हैजिसे नष्ट नहीं किया जा सकताकोई उसे नष्ट नहीं कर सकता। जो नाशवान हैवही नष्ट होगाजो अनश्वर है वह बचा रहेगा। जब तुम अपने भीतर छिपे हुए उस अविनाशी तत्व कोउस सनातन बोध को पा लेते हो तब तुम एक नये मनुष्य बन जाते होएक नई चेतना बन जाते हो। और तब जो असंभाव है वह संभव बनता हैजो अप्राप्त है वह प्राप्त होता है।
तो सरहा को उस स्त्री की मुद्रा का स्मरण आया। उस एक अज्ञतअदृश्यअगाम्य की ओर लक्ष्य किये हुए थी। कैसे अस्तित्व के साथ एक हुआ जाएलक्ष्य है अद्वैत जहा विषय और विषयी दोनों खो जाते हैंजहां मैं’ और तू’ खो जाते हैं।
मार्टिन बूबर की एक बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है: आइ एंड दाउ।’ मार्टिन बूबर कहता है कि प्रार्थना की अनुभूति मैं’ और तू’ की अनुभूति है--और वह ठीक कहता है। प्रार्थना की अनुभूति मैं-तू’ की ही अनुभूति हैजिसमे परमात्मा है तू’ ओर तुम होते हो मैं’ और तुम्हारे और तू’ के बीच एक भीतरी संवाद घटता है। लेकिन बौद्ध धर्म में प्रार्थना है ही नहींवह उससे ऊपर उठता है। बौद्ध धर्म कहता है: मैं-तू’ का संबध भी द्वैत का संबध हैतुम फिर भी अलग विषक्त रह जाते हो। तुम दूसरे के प्रति चिल्ला सकते होलेकिन भीतरी संवाद घटित नहीं होगा। भीतरी संवाद तो तब घटता है जब मैं-तू’ का द्वैत ही नहीं रहताजब विषय और विषयी दोनों खो जाते हैंजहां मैं’ रहता है न तू’ रहता है। जहा न खोजने वाला रहता हैन वह रहता है जिसकी खोज है--जहां एक की ही सत्ता होती हैकेवल एकता होती है।
सरहा ने जैसे ही यह जानाउस स्त्री की क्रियाओं को परखा और उन्हें सत्य की पहचान हुईउस स्त्री ने उन्हें सरहा’ कह कर पुकारा। उनका नाम तो राहुल थाउस स्त्री ने लेकिन उन्हें सरहा’ कहा। सरहा’ बड़ा प्यारा शब्द है। उसका अर्थ होता है, ‘वह जिसने तीर मार लिया है।’ ‘सर’ का अर्थ होता है तीर’ ‘हा’ का मतलब है मार लिया’ ‘सरहा’ का अर्थ है वह जिसने तीर मार लिया। जैसे ही उन्हें उस स्त्री की क्रियाओं का भेद समझ में आ गयाउसकी वह प्रतिकात्मक मुद्राएंजैसे कि वह उन्हें कुछ देने का प्रयत्न कर रही थीवह क्या दिखाने का प्रयत्न कर रही थी उसका रहस्य समझ में आयावैसे ही वह स्त्री अति आनंदित हुई। वह नाच उठी और उसने उन्हें सरहा’ कह कर बुलाया और कहा: आज से तुम सरहा कहे जाओगे: तुमने तीर मार लिया है। मेरी क्रियाओं का भेद समझ कर तुमने प्रवेश कर लिया है।
सरहा ने कहा: तुम कोई साधारण तीर बनाने वाली स्त्री नहीं होमेरा ये सोचना है कि तुम एक सामान्य तीर बनाने वाली स्त्री होभूल थीमुझे क्षमा करोइस बात का मुझे बहुत खेद है। तुम एक महान गुरु हो और तुम्हारे कारण मेरा पुनर्जन्म हुआ है। कल तक मैं सच्चा ब्राह्मण नहीं थालेकिन आज से मैं जरूर ब्राह्मण हूं। तुम ही मेरी गुरु होऔर तुम ही मेरी माता होऔर तुम्हीं ने मुझे नया जन्म दिया है। मैं अब वही नहीं हूं। इसलिए तुमने ठीक ही किया जो मेरा पुराना नाम बदल कर मुझे नया नाम दे दिया
तुम मुझसे कभी पूछते हो: आप नया नाम क्यो देते हो?’--इसलिए कि तुम्हारा पुराना नामो निशान न बचेकि तुम अपने भूतकाल को भूल जाओजो बीत गया है उससे पूरा छुटकारा जरूरी हैभूतकाल के साथ तुम्हें पूरी तरह संबंध-विच्छेद करना होगा।
सो इस प्रकार राहुल सरहा बन गए।
कहा तो यह जाता है कि वह स्त्री और कोई न होकर गुप्त रूप  में स्वंय बुद्ध थे। शास्त्रों में जो बुद्ध का नाम दिया गया हैवह है सुखनाथ बुद्धजो सरहा जैसे बड़ी संभावना रखने वाले व्यक्ति की सहायता के लिए आए थे। बुद्ध नेया कहो किसी सुखनाथ नाम के बुद्धपुरुष ने स्त्री का रूप  ले लिया था। लेकिन क्योंक्यों स्त्री का रूपक्योंकि तंत्र यह मानता है कि जैसे मनुष्य का जन्म स्त्री से होता है वैसे ही शिष्य के रूप में उसका नया जन्म भी स्त्री से ही होगा। असलियत तो यह है कि सभी गुरु मां अधिक और पिता कम होते हैं। उनमें स्त्रैणता का गुण होता है। बुद्ध स्त्रैण हैवैसे ही महावीर और वैसे ही कृष्ण भी स्त्रैण है। इनमें तुम्हे स्त्रियोचित लावण्य और (सुडौलता) गोलाईस्त्रियोचित सौंदर्य दिखाई देंगे: इनकी आंखों में तुम देखो तो तुम्हें पुरुष की आक्रामकता नहीं दिखाई देगी।
तो बुद्ध का स्त्री रूप धारण करना बड़ा प्रतिकात्मक है। बुद्ध सदा स्त्री का रूप लेते हैंवे भले ही पुरुष के शरीर में रहते हो लेकिन मूलतः वे स्त्री ही होते हैं। क्योंकि जो भी पैदा होता है वह स्त्री-शक्ति से ही होता है। पुरुष शक्ति जन्म की प्रक्रिया का आरंभ तो कर सकती है लेकिन जन्म नहीं दे सकती।
गुरु को तुम्हें अपने गर्भ में महीनों तकसालों तक और कभी-कभी तो जन्मों तक रखना पड़ता है। कोई नहीं कह सकता कब तुम जन्म लेने को तैयार हो जाओ। गुरु को मां बनना पड़ता है। गुरु में स्त्री-शक्ति की भारी सामर्थ्य होना जरूरी है तभी वह तुम पर प्रेम की वर्षा कर सकता हैतभी वह तुम्हें खत्म कर सकता है। जब तक तुम्हें उसके प्रेम के बारे में पक्का नहीं होगातुम उसे खत्म नहीं करने दोगे। तुम श्रद्धा करोगे कैसेकेवल गुरु का प्रेम ही तुम्हें श्रद्धा करने योग्य बनाएगा और उसी श्रद्धा द्वारा वह धीरे-धीरे तुम्हारे अंग-प्रत्यंग काटेगा। और एक तुम एकाएक मिट जाओगे। धीरे...धीरे...धीरे और तुम गए। गते गते पारगते। तब नये का जन्म होता है।
तीर बनाने वाली स्त्री ने सरहा को स्वीकार कर लिया। असल में वह उसकी प्रतिक्षा कर रही थी। गुरुशिष्य की प्रतिक्षा करता है। पुरानी परंपराएं कहती है: इससे पहले कि शिष्य गुरु को चुनेगुरु ने शिष्य को चुन लिया होता है। ठीक वही इस कथा में भी घटित हुआ। सुखनाथ स्त्री के रूप में छिप कर सरहा के आने की तथा उनके द्वारा रूपांतरित होने की प्रतीक्षी कर रहे थे।
यह और भी अधिक तर्कसंगत लगता हैकि पहले गुरु ही चुने क्योंकि उसमें बहुत अधिक प्रतिभिज्ञता हैवह जानता है। वह तुम्हारे अस्तित्व में तुम्हारी संभावना में प्रवेश कर सकते हैं। वह तुम्हारा भविष्य देख सकता है। वह उसे देख सकता है जो हो सकता है। जब तुम गुरु चुनते हो तब तुम यह सोचते हो कि तुमने चुना-तुम गलत सोचते हो। तुम गुरु कैसे चुनोगेतुम तो अंधे होतुम कैसे पहचान सकोगे गुरु कोतुम तो बेहोश होतुम्हे गुरु की अनुभूति होगी कैसेअगर तुम्हे उसकी अनुभूति होने लगे तो उसका अर्थ हैगुरु ने तुम्हारे हृदय मे प्रवेश कर लिया हैऔर तुम्हारी शक्तियों के साथ खेलना शुरू कर दिया है--इसीलिए तुम्हे उसकी अनुभूति होने लगती है।
इससे पहले कि शिष्य गुरु को चुनेशिष्य चुन लिया गया होता है।
स्त्री ने सरहा को स्वीकार कर लिया। वह असके आने की प्रतिक्षा कर ही रही थी। वे दोनो एक श्मशान में आकर साथ-साथ रहने लगे। श्मशान में क्योंइसलिए कि बुद्ध ने कहा है: जब तक तुम मृत्यु को नहीं समझतेजीवन क्या है यह नहीं समझ पाओगे। जब तक तुम मर नहीं जातेतुम्हारे पुनर्जन्म नहीं होगा।
सरहा के बाद तंत्र के कई अनुयायी श्मशान में रह चुके हैं। वे इस परंपरा के जनक थेवे श्मशान में ही रहे। लोग अरथियां लाते और जलातेऔर वे वहीं रहते। उन दोनों के बीच गहन प्रेम था--ऐसा नहीं जैसा किसी स्त्री और पुरुष के बीच होता हैबल्कि गुरु और शिष्य का प्रेम जो स्त्री-पुरुष के प्रेम से कहीं अधिक ऊंचा हैजो अधिक घनिष्ठ होता हैनिश्चय ही अधिक घनिष्ठ...क्योंकि स्त्री और पुरुष का प्रेम तो केवल शारीरिक होता है। ज्यादा से ज्यादा कभी-कभी मन तक पहुंचता हैवरना अक्सर तो शरीर तक ही सीमित रहता है।
गुरु और शिष्य का संबंधआत्मा का प्रेम-संबंध है। सरहा को उनका आत्म-साथी मिल गया था। दोनों एक-दूसरे के गहन प्रेम में थेऐसा प्रेम जो इस पृथ्वी पर कदाचित ही होता है।
स्त्री ने सरहा को तंत्र की शिक्षा दी। केवल स्त्री ही तंत्र सिखा सकती है। किसी ने मुझसे पूछा कि मैंने कविशा को तंत्र का ग्रुप लीडर क्यों बनयाइसलिए कि केवल स्त्री ही तंत्र के ग्रुप की लीडर बन सकती है। पुरुष के लिए कठिन होगा। हांकभी-कभी पुरुष भी बन सकता हैलेकिन फिर उसे बहुत ही स्त्रैण बनना होगा। स्त्री तो होती ही हैउसमें पहले से ही वे गुण होते हैं--प्रेम और स्नेह के गुण। उसमें स्वभावतः देखभालप्रेमतथा कोमलता के गुण होते हैं।
इस तीर बनाने वाली स्त्री के मार्ग-दर्शन में सरहा तांत्रिक बन गए। अब उन्होंने ध्यान करना छोड़ दिया। एक दिन उन्होंने वेदशास्त्रज्ञान आदि छोड़ दिया थाअब उन्होंने ध्यान भी छोड़ दिया। सारे देश में अफवाह फैल गई कि सरहा अब ध्यान नहीं करते। वे गाते जरुर हैंनाचते भी हैंलेकिन ध्यान बिलकुल नहीं करते। अब संगीत ही उनका ध्यान बन गयाअब नृत्य ही उनका ध्यान बन गया। अब उत्सव ही उनके सारे जीवन को ढंग बन गया।
श्मशान में रहना और उत्सव। रहना जहां केवल मृत्यु घटती हो और जीना आनंद-विभोर होकर। यही तंत्र की खूबी है--वह जहां भी विरोध हैजो भी विपरीत है उसे जोड़ता है। अगर तुम कभी श्मशान जाओ तो उदास हो जाओगेवहां तुम्हारे लिए आनंद मग्न होना बड़ा कठिन होगाऐसी जगह जहां लोग जलाये जाते होजहां लोग रोते-चिल्लाते होंतुम्हारे लिए गाना और नाचना बड़ा कठिन होगा। और रोज मौत ही मौतदिन रात मौत। कैसे तुम आनंद मनाओगे?
लेकिन अगर वहां तुम आनंद नहीं मना सकते तो जिसे आज तक तुम आनंद समझते रहे हो वह झूठ है। अगर तुम श्मशान में भी आनंद मना सको तब तो यह कहा जा सकता हैकि तुम में आनंद घटित हुआ है। क्योंकि अब वह बेशर्त है। अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कही मृत्यु है या जीवनकि किसी का जन्म हुआ या मृत्यु हुई।
सरहा गाने और नाचने लगे। अब वे पहले की तरह गंभीर नहीं रहे। तंत्र में गंभिरता है ही नहीं। तंत्र है क्रीड़ा! हांउसमें ईमानदारी हैलकिन गंभीरता नहीं। वह अत्यंत आनंदपूर्ण है। तो सरहा के आस्तित्व में क्रीड़ा का प्रवेश हो गआ--तंत्र है ही क्रीड़ाक्योंकि तंत्र प्रेम का सबसे विकसित रूप है: प्रेम है क्रीड़ा।
कुछ लोग हैं जो प्रेम को भी क्रीड़ा नहीं मानते। महात्मा गांधी ने कहा है: संभोग तभी करो जब बच्चे पैदा करने हों। प्रेम तक को तो लोग एक काम बना डालते हैं--बच्चे पैदा करना। यह तो बिलकुल ही घिनौनी बात हुई। बच्चे पैदा करने हो तभी पत्नी के साथ संभोग करो--क्या पत्नी कोई फैक्टरी है! पत्नी से संभोग तब करो जब तुम आनंद अनुभव कर रहे होउत्साहित होजब तुम अपने चरमोत्कर्ष पर हो। उस ऊर्जा को बांटो। पति के साथ प्रेम तब करो जब तुम्हारा मन नृत्यगीत और आनंद से आंदोलित हो। प्रजोत्पादन या बच्चे पैदा करने के लिए नहीं! यह प्रजोत्पादन’ शब्द ही अश्लील है। संभोग करो तो आनंद के साथघने आनंद के साथ करोजब तुम्हारे पास बहुत आनंद हो जाए तब बांटो।
तो सरहा के जीवन में खेल और क्रीड़ा का प्रवेश हुआ। प्रेमी सदा क्रीड़ा के उत्साह में होता हैऔर जैसे ही यह क्रीड़ा का उत्साह मरता हैतुम पति या पत्नी बन जाते होफिर तुम प्रेमी नहींरहतेफिर तुम बच्चे पैदा करने में लग जाते हो। और जैसे ही तुम पति या पत्नी बने कि तुम्हारे में जो सुदंर है उसकी हत्या हो जाती हैउसमें प्राण नहीं रहतेउसमें रस नहीं बहता। अब मात्र एक दिखावाएक ढोंग रह जाता है।
सरहा के जीवन में क्रीड़ा का प्रवेश हुआऔर उसके साथ ही सच्चे धर्म का जन्म हुआ। उनकी भावविभोरता इतनी संक्रामक थी कि लोग उन्हें गाते और नाचते हुए देखने आने लगे। और जब लोग उन्हें देखते तो वे भी उनके साथ नाचने लगतेवे भी उनके साथ गाने लगते। वह पूरा श्मशान बड़े आनंद और उत्सव का केंद्र बन गया। वहां मुर्दे तो अभी भी जलते थेलेकिन सरहा और तीर बनाने वाली स्त्री के आसपास अधिकाधिक भीड़ एकत्रित होने लगीऔर उस श्मशान में बड़ा आनंद मनाया जाने लगा।
और यह सब इतना संक्रामक हो गया कि जिंहें भावविभोरता क्या होती है उसका कुछ भी पता नहीं थावे लोग आकर नाचते और गाने लगे और भावविभोरता में डूबने लगेसमाधि में उतरने लगे। सरहा की तरंगेंउनकी मौजूदगी ही इतनी प्रभावशाली बन गई कि अगर तुम उनके साथ जुड़ जाओ तो तुम्हारे साथ भी वह घट जाए। वे इतने मस्त बन गए थे कि लोगों पर उनकी मस्ती उमड़ पड़ने लगी। वे इतने उन्मादित हो गए कि उनके साथ अन्य लोग भी अधिकाधिक आनंदग्रस्त होने लगे।
लेकिन फिर जो अपरिहार्य था वह हुआ: ब्राह्मणों नेपंडित और पुरोहितों नेऔर तथा कथित धार्मिक लोगों ने सरहा को बदनाम करना शुरू कर दिया--इसे ही मैं अपरिहार्य कहता हूं। जब भी सरहा जैसा आदमी होगापंडित निश्चय ही उसके विरोध में हो जाएंगेपुरोहित विरोध में हो जाएंगेऔर वे तथाकथित सदाचारीनेतिकतावादीधर्म परायण लोग विरोध में हो जाएंगे। तो इन लोगों ने सरहा के बारे में बिलकुल बेबुनिया अफवाहें फैलानी शुरू की।
वे लोगों से कहने लगे: वह तो पतित हो गया है। भ्रष्ट हो गया है। अब वह ब्राह्मण ही नहीं रहा। उसने ब्रह्मचर्य छोड़ दिया है। अब वह बौद्ध भिक्षु तक नहीं रहा। वह एक निम्न जाति की स्त्री के साथ लज्जास्पद आचरण करता है और एक पागल कुत्ते की तरह चारों और दौड़ता फिरता है।’ उन्हें सरहा का भावविभोर होना पागल कुत्ते जैसा लगा--सब तुम्हारी व्याख्या पर निर्भर करता है। सरहा पूरे श्मशान में नाचते फिरते थे। वे उन्मत्त तो थेलेकिन किसी पागल कुत्ते की तरह नहीं--वे परमात्मा के नशे में उन्मत्त थे।
सब तुम्हारी दृष्टी पर निर्भर है।
राजा को भी इन बातों की खबर पहुंचाई गई। ठीक क्या हो रहा हैयह उसे भी जानने की उत्सुकता हुई। लोग आ-आ कर उसे खबरें पहुंचाने लगेऔर वह चिंतित होने लगा। वे लोग राजा को जानते थेउनके मन में सरहा के प्रति बड़ा सम्मान हैयह उन्हें ज्ञात थावह उन्हें अपने दरबार का मंत्री बनाना चाहता था। लेकिन सरहा ने तो संन्यास ले लिया था। राजा के मन में सरहा की विद्वत्ता के प्रति बड़ा सम्मान थासो लोग उसके पास उनकी खबरें लाने लगे।
राजा को और भी अधिक चिंता हुई। उसे इस युवक से प्रेम थाउसके प्रति सम्मान भी थाऔर वह उसके लिए चिंतित भी था। कुछ लोगों को राजा ने सरहा को समझाने के लिए भेजाऔर कहलवाया कि अपने पुराने मार्ग पर लौट आओ। तुम ब्राह्मण होतुम्हारे पिता बड़े पंडित थेतुम स्वयं बड़े पंडित थे--यह तुम क्या कर रह होतुम भटक गए हो। वापस घर लौट आओ। मैं अभी जिंदा हूं। राजमहल आओ और मेरे परिवार के अंग बन जाओ। तुम जो कर रहे हो वह ठीक नहीं है।
जो लोग सरहा का मन बदलने आए थे उनके आगे सरहा ने एक सौ साठ पद गाए। वे एक सौ साठ पद...और वे लोग नाचने लगेवे फिर लौटे ही नहीं।
राजा को और भी अधिक चिंता हुई। राजा की पत्नीरानी को भी इस नवयुवक में रुचि थी। वह अपनी बेटी का विवाह उसके साथ करना चाहती थीतो वह भी सरहा को समझाने गई। और सरहा ने रानी के आगे अस्सी गीत गए....और रानी फिर राजमहल नहीं लौटी।
राजा बड़ा हैरान हुआ: वह यहां हो क्या रहा है?’ तो राजा स्वयं वहां पहुंचा और सराह ने केवल चालीस पद गाए और राजा का हृदय परिवर्तन हो गयाऔर वह भी उस श्मशान में पागल कुत्ते की तरह नाचने लगा।
तो सरहा के नाम पर तीन ग्रंथ उपलब्ध हैं: पहला: सरहा के लोक-गीतएक सौ साठ पददूसरा: सरहा के रानी के गीत--पहले एक सौ साठ पददूसरे अस्सी पर: और फिर सरहा के राज-गीत जिन का हम ध्यान करेंगे--वे हैं चालीस पद। एक सौ साठ पर आम लोगों के लिए क्योंकि उनकी समझ कोई बहुत अधिक नहीं थी। अस्सी पद रानी के लिए क्योंकि उसकी समझ आम लोगों की समझ से जरा अधिक थीचालीस पद राजा के लिए क्योंकि वह आदमी बुद्धिमान थासमझदार थाबोधयुक्त था।
 राजा में परिवर्तन हो जाने के कारण धीर-धीरे पूरे देश में धार्मिक परिवर्तन आ गया। और पुराने शास्त्र तो कहते हैं कि एक समय आया जब पूरा देशा शून्य हो गया। शून्य’..? यह बौद्ध शब्द है। इसका अर्थ हुआ कि लोग ना-कुछ हो गएवे अहंकार-शून्य हो गए। लोग मिला हुआ क्षण आनंदपूर्वक बिताने लगे। आपा-धापीपतिस्पर्धा की हिंसा सारे देश में से गायब हो गई। पूरा देशा शांत हो गयावह शून्य हो गया...जैसे वहां कोई था ही नहीं। उस देश में आदमी जैसे गायब ही हो गएएक महान दिव्यता उस देश में उतर आई। यह चालीस पद उसके मूल में थेउसके स्त्रोत थे।
अब हम इस महा-यात्रा में प्रवेश करेंगे: सरहा के राज-गीत। इन्हें मानव-कर्म के गीत’ भी कहा जाता हैं--यह बड़ा विरोधाभासी हैक्योंकि इन पदों का कर्म से कोई लेना-देना नहीं है। परंतु इसीलिए इन्हें मानव-कर्म के गीत’ कहा जाता हैं। इनका संबंध अस्तित्व से हैजब अस्तित्व में परिवर्तन होता हैतब कर्म भी बदल जाता है। जब तुम बदलते हो तो तुम्हारा व्यवहार भी बदलता है--इसका उलटा नहीं होता। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि पहले तुम अपने कर्म बदलो और तब तुम्हारा आस्तित्व बदलेगानहीं! तंत्र कहता है: पहले खुद अपना अस्तित्व बदलो और तुम्हारा कर्म अपने आप बदल जाएगा। पहले एक दूसरी ही तरह की तरह की चेतना को प्राप्त करोऔर उसके पीछे एक दूसरे ही तरह का कर्मचरित्रय व्यवहार चला आएगा।
तंत्र अस्तित्व में होने में मानता हैकर्म और चारित्र्य में नहीं। इसीलिए इसे मानव-कर्म के गीत’ कहा है--क्योंकि एक बार अस्तित्व बदल जाये तो तुम्हारे कर्म भी बदल जाते हैं। तुम्हारे कर्म बदलने का एक मात्र यही मार्ग है। कर्म तो सीधे आज तक कौन बदल पाया हैतुम केवल दिखाव भर कर सकते हो।
अगर तुम में क्रोध हैऔर तुम अपना कर्म बदलना चाहते हो तो तुम क्या करोगेतुम अपना क्रोध दबाओगे और नकली चेरहा दिखाओगेतुम्हें नकली चेहरा लगाना ही पड़ेगा। अगर तुम में कामवासना दबी पड़ी है तो तुम उसे बदने के लिए क्या करोगेतुम ब्रह्मचर्य का व्रत ले सकते हो और बाहरी दिखावा कर सकते होलेकिन भीतर गहरे में तो ज्वालामुखी जलता ही रहेगा। तुम ज्वालामुखी पर बैठे होवह किसी भी क्षण फूट सकता है। इस तरह तो तुम सदा कंपते रहोगेसदा भयभीत रहोगे।
तुमने तथाकथित धार्मिक लोगों को नहीं देखावे सदा भयभीत रहते हैनर्क का भयऔर सदा स्वर्ग जाने के चक्कर में लगे रहते हैं। लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि स्वर्ग क्या हैउन्होंने कभी उसका स्वाद चखा ही नहीं है। अगर अपनी चेतना बदल डालो तो स्वर्ग तुममें उतर आएगानहीं कि तुम स्वर्ग चले जाओगे। न कभी कोई स्वर्ग गया हैऔर न कभी कोई नरक गया है। इस बात को एक बार तय हो जाने दें: स्वर्ग तुम्हारे पास आता हैनरक तुम्हारे पास आता हैसब तुम पर निर्भर है। जो भी तुम बुलाओगे,वह आयेगा।
अगर तुम्हारा अस्तित्व बदल जाए तो स्वर्ग तुम्हें सहज उपलब्ध हो जाएगास्वर्ग तुम पर उतर आएगा। अगर तुम्हारा अस्तित्व नहीं बदलता तो फिर तुम संघर्ष में रहते होतब तुम उस चीज को जबर्दस्ती करते हो जो वहां है ही नहीं। तब तुम नकली और अधिक नकली बन जाते होऔर तुम एक नहीं दो व्यक्ति बन जाते होतुम्हारा व्यक्तित्व खंडित हो जाता हैतुम टूट जाते हो। तुम दिखाते कुछ होहोते कुछ और हो। तुम कहते कुछ होकरते कुछ और हो। और फिर तुम सतत अपने आप के साथ आंख-मिचौली खेलते रहते हो। ऐसी हालत में चिंताव्यथा की स्थिति स्वभाविक हो जाती है--यही फर्क है।
अब हम सरहा के पदों में प्रवेश करेगें:

महान मंजुश्री को मेरा प्रणाम,
प्रणाम हैं उन्हें
जिन्होंने किया सीमित को अधीन

यह मंजुश्री’ शब्द समझना पड़ेगा। मंजुश्रीबुद्ध के शिष्यों में से थेलेकिन बड़े अनूठे शिष्य थे। वैसे तो बुद्ध के कई अनूठे शिष्य थेअपने-अपने ढंग से अनूठे। महाकश्यप अनूठे थे क्योंकि वे बुद्ध द्वारा निःशब्द में दिया हुआ संदेश समझ सके...इत्यादिइत्यादि। मंजुश्री इसलिए अनूठे थे क्योंकि उनमें गुरु होने का बड़ा भारी गुण था।
जब भी कोई कठिन समस्या बन जाताकोई व्यक्ति समस्या बन जाताबुद्ध उसे मंजुश्री के पास भेज देते। मंजुश्री का नाम लेते ही लोग कांपने लगते। वे निश्चय ही बड़े कठोर आदमी थेबड़े उग्र। जब भी कोई मंजुश्री के पास भेजा जाताशिष्य कहते: उसे मंजुश्री की तलवार के पास भेजा है। मंजुश्री की तलवार: यह वचन सदियों से प्रसिद्ध रहा हैक्योंकि मंजुश्री एक वार से
सिर (बुद्धि) के दो टुकड़े कर डालते थे। आहिस्ता-आहिस्ता नहीं। एक झटके से वे सिर के टुकड़े कर डालते। उनकी करुणा इतनी थीइसीलिए वे इतने क्रूर बन सकते थे।
तो धीरे-धीरे मंजुश्री का नाम सभी गुरुओं का प्रतिनिधि नाम बन गयाक्योंकि सभी गुरु करुणावान होते हैं और सभी को क्रूर बनना पड़ता है। करुणावान इसलिए क्योंकि वे तुम्हें एक नये व्यक्ति के रूप में जन्म देते हैंक्रूर इसलिए कि उन्हें जो पुराना है उसे नष्ट करना पड़ता है।
तो पद आरंभ करने से पहले जब सरहा नमन करते हैंतो वे कहते हैं: महान मंजुश्री को मेरे प्रणाम’--वे जो गुरुओं के गुरु हैं--प्रणाम हैं उन्हें जिन्होंने किया सीमित को आधीन।’ और फिर वे बुद्ध को प्रणाम करते हैंजिन्होंने सीमित पर विजय पाई और जो असीम बन गए।

जैसे पवन के आघात से
शांत जल में उभर आती हैउतंग तरंगें,
ऐसे ही देखते हो सरहा
अनेक रूपों मेंहे राजन!
यद्यपि है वह एक ही व्यक्ति।

एक सरोवर की कल्पना करेंबिलकुल शांत सरोवर जिस पर एक भी लहर न उठ रही हो। और एका-एक पवन का झोंका आकर सरोवर को झकझोर देता है। और हजारों लहरें उभर आती हैं। एक क्षण पहले जो पूनम का चांद उस सरोवर में चमक रहा थाअब नहीं रहा। अब चांद का प्रतिबिंब तो हैमगर हजार टुकड़ों में पूरे सरोवर में फैला है। पूरा सरोवर उस फैले हुए प्रतिबिंब के कारण रूपहला बन जाता है। लेकिन असली प्रतिबिंब को तुम नहीं पकड़ पातेक्योंकि वह तो तितर-बितर हो गया है।
सरहा कहते हैं: यही हालत सांसारिक मन की हैमोहग्रस्त मन की। एक बुद्ध में और जो बुद्ध नहीं हैउसमें बस यही फर्क है। बद्ध वह है जिसमें अब पवन का झोका नहीं आता। पवन के उस झोंके का नाम है--तृष्णा।’ क्या तुमने कभी ध्यानपूर्वक देखा हैजब भी इच्छा का जन्म होता हैतुम्हारे हृदय में हजारों लहरें कांप उठती हैं। तुम्हारी चेतना हिल उठती हैव्याकुल हो जाती है। इच्छा के थमते ही तुम्हें आराम मिलता हैभीतर एक शांति का अनुभव होता है।
तो इच्छा ही वह पवन हैजो मानस में विकृति पैदा करती हैऔर जब मानस विकृत हो तो तुम असली सत्ता को प्रतिबिंबित नहीं कर सकते।

जैसे पवन के आघात से
शांत जल में उभर आती है उतंग तरंगें,
ऐसे ही देखते हो सरहा
अनेक रूपों मेंहे राजन!
यद्यपि है वह एक ही व्यक्ति।

सरहा दो बातें कह रहे हैं। पहले तो वह कहते रहे हैं: बेकार की बातों से तुम्हारा मानस पहले ही बहुत अशांत है। पहले ही पवन के झोंकों ने तुम्हारा मानस आंदोलित कर रखा है। तुम मुझे नहीं देख पाओगेयद्यपि हूं मैं एक ही--लेकिन तुम्हारा मन मुझें हजार रूपों में प्रतिबिंबित करता है।
सरहा ठीक कह रहे थे। वे राजा के आर-पार देख सकते थे। राजा मुश्किल में पड़ गया। एक और तो वह इस नवयुवक का बड़ा आदर करता थाएक और तो उसे इस नवयुवक में बड़ी आस्था थी। राजा जानता था कि वह गलत नहीं हो सकता। लेकिन फिर इतने लोगों नेइतने तथाकथित ईमानदारइज्जतदारधनीपढ़े-लिखे लोगों ने उसे आकर कहा था: वह तो गलत रास्ते पर चढ़ गया हैवह तो लगभग पागल हो गया है। वह तो विक्षिप्त हैभ्रष्ट हो गया है। एक निम्न जाति की तीर बनाने वाली स्त्री के साथ रहता है। वह तो श्मशान में रहता हैभला यह भी कोई रहने की जगह है। वह सारे क्रियाकर्म भूल गया हैअब न वह वेदपाठ करता हैन परमात्मा का नाम लेता है। ध्यान करते हुए भी नहीं देखा गया है। वह तो विचित्रगंदीशर्मनाक करतूतों में डूबा रहता है।
जो लोग कामवासना से ग्रस्त रहते हैं उन्हें तंत्र शर्मनाक ही लगता है। वे समझ नहीं पातेदबी हुई वासनाओं की वजह से उनकी समझ में ही नहीं आता क्या हो रहा है। तो ये तमाम बातें राजा के मानस पर पवन के बड़े झोंके का काम कर रही थी। राजा का एक हिस्सा तो सरहा को प्रेम करता थाउसका आदर करता थाउसका दूसरा हिस्सा गहरी शंका में डूबा हुआ था।
सरहा ने सीधे राजा की और देख कहा: ऐसे ही देखते हो सरहा उनके रूपों मेंहे राजन! यद्यपि है वह एक ही व्यक्ति।’ यद्यपि सरहा एक ही व्यक्ति है: मैं एक पूर्णमासी के चंद्रमा की तरह हूंलेकिन तुम्हारे मानस सरोवर में हलचल मची है। इसलिए अगर तुम मुझे समझना चाहते हो तो कृपा कर सीधे समझने की कोशिश न करो--मुझे समझने का एक ही रास्ता है और वह यह कि जो पवन तुम्हारे मानस को सतह पर चोट कर रहा है उसे रोको। पहले तुम्हारी चेतना शांत हो लेने दो...फिर देखो! पहले इन लहरों ओर मौजों को रूक जाने दोतुम्हारी चेतना को एक शांत जलाशय बन जाने दोऔर तब तुम देखो। जब तक तुम देखने के काबिल नहीं हो जातेमैं तुम्हें समझा नहीं सकता कि मेरे साथ क्या घटित हो रहा हैयह निश्चित हैऔर वह भी यहीं। मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं! मैं एक ही व्यक्ति हूंलेकिन मैं तुम में देखा सकता हूं--तुम मुझे इस तरह देख रहे हो जैसे में एक नहीं हजार व्यक्ति हूं।

भेंगा है जो मूढ़
दिखते उसे एक नहींदो दीप,
जहां दृश्य और द्रष्टा नहीं दो,
अहा! मन करता संचालन
दोनों ही पदार्थगत सत्ता का।

और फिर सरहा उपमाप्रतीक देते हैं। पहले तो वे कहते हैं तुम्हारे मानस सरोवर में हलचन मची है। फिर वे कहते हैं: भेंगा है जो मूढ़ दीखाते उसे एक नहीं दो दीप--वह एक देख ही नहीं सकतावह दो देखता है।
मैंने सुना हैएक दिन मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को शराबी होने के ढंग सिखला रहा था। कुछ शराब पी लेने के बाद मुल्ला ने कहा: लोअब चलो। हमेशा याद रखनाशराब पीनी बंद करने का नियम यह है: जब भी तुझे एक की जगह दो आदमी दिखाई देने लगेघर लौट जानासमझना कि बस काफी है।
जब एक की जगह दो दिखाई देने लगेलेकिन बेटे ने कहा: कहांहै कहां वह एक आदमी?
मुल्ला ने कहा: देख उस औरउस औरउस टेबल पर दो आदमी बैठे हैं।
बेटा बोला: वहां तो कोई नहीं है!’ उसने पहले ही बहुत पी ली थी।
स्मरण रहेजब तुम बेहोश होते हो तब चीजें वैसी नहीं दिखाई देतीजैसी होती हैजब तुम बेहोश होते हो तब तुम प्रक्षेपण करते हो। आज रात जब चांद को देखो तब अंगुली से अपनी एक आंख को दबाना और तुम्हें दो चांद दिखाई देने लगेंगे और जब तुम दो चांद देख रहे होगे तब यह मानना बड़ा कठिन होगा कि यह एक ही चांद है। क्योंकि तुम देख रहे होगे दो चांद। जरा सोचों! कोई जन्म से ही दबी हुई आंख लेकर आया हो जिसके कारण उसे एक वस्तु दो दिखाई देती हो तो वह हमेशा एक की जगह दो ही देखेगा। जहां तुम एक देखोगे वहां वह दो देखेगा।
हमारी भीतरी दृष्टि अनेक चीजों से घिरी हुई हैइसके कारण हम उन चीजों को देखते रहते हैं जो असल में हैं ही नहीं। और जब हम उन्हें देखते हैं तो कैसे विश्वास करें कि वे नहीं हैंहमें अपनी आंखों पर विश्वास करना पड़ता हैयद्यपि हमारी आंखें चीजों को तोड़-मरोड़ कर देख रही होती हैं।

भेंगा है जो मूढ़
दखिाते उसे एक नहींदो दीप,
जहां दृश्य और द्रष्टा नहीं दो,...

सरहा राजा से कह रहे हैं: अगर तुम यह सोच रहे हो कि मै और तुम दो हैंतब तुम बेहोश होतब तुम मूर्ख होतब तुम पीए हुए होतब तुम्हें देखना नहीं आता। अगर तुम सही में देख सको तो मैं और तुम एक ही हैंतब द्रष्टा ओर दृश्य दो नहीं हैं। तब तुम्हें सरहा नृत्य करता हुआ नहीं दिखाई देगातुम स्वयं को नृत्य करता हुआ देखोगे। तब मैं जब समाधि में उतरुंगा तो तुम उतरोगे और यही एक मार्ग है जानने का कि सरहा के साथ क्या घट रहा हैऔर कोई मार्ग नहीं। मुझे क्या हुआ हैअगर तुम जानना चाहते हो तो एक तरीका यही है कि मेरे अस्तित्व में भागीदार बन जाओ। प्रत्येक की भांति खड़े न रहो। तुम्हें मेरे अनुभव में साझीदार बनना पड़ेगातुम्हें अपने आप को मुझमें थोड़ा बहुत खोना पड़ेगा। तुम्हें अपनी सीमाओं से बाहर आकर मेरी सीमाओं को छूना पड़ेगा।
संन्यास का अर्थ ही यह है। तुम मेरे नजदीक आने लगोतुम अपनी सीमाओं को मुझमें खोने लगोतभी जाकर एक दिन इस साझेदारी की वजह से जब तुम्हारा मेरे साथ घनिष्ठ संबंध हो जाएगातब तुम्हें कुछ दिखने लगेगाकुछ तुम्हारी समझ में आने लगेगा। और तुम उसको जो कि मात्र प्रक्षेपण बन कर खड़ा हैविश्वास नहीं दिला पाओगेक्योंकि तुम्हारी दृष्टियां भिन्न होंगी। तुम साझीदार रहे हो जब कि वह तो मात्र देखता रहा हैये दो बिलकुल अलग दुनियां में जीना है।

गृह दीप यद्यपि प्रज्वलित..
सुना सरहा का यह सुदंर कथन:
गृहदीप यद्यपि प्रज्वलित,
जीते अंधेरे में नेत्रहिन,
सहजता से परिव्याप्त सभी,
निकट वह सभी के,
पर रहती सब परे मोहग्रस्त के लिए।

वह कह रहे है: देखो! मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ है। गृहदीप यद्यपि प्रज्वलित’...मेरे भीतर अब अंधेरा नहीं है। देखो! मुझमें कितना प्रकाश है। मेरी आत्मा जाग उठी है। अब मैं वही राहुल नहीं हूं जिसे तुम जानते थेमैं सरहा हूंमेरा तीर निशाने पर लग चुका है।

गृहदीप यद्यपि प्रज्वलित,
जीते अंधेरे में नेत्रहिन,

लेकिन मैं क्या करूंसरहा कह रहे हैंअगर घर में दीये जल रहे हो और कोई अंधाबन अंधेरे में ही जीया करे। ऐसा नहीं कि दीये जल रहे हैं और कोई अंधा बन कर अंधेरे में ही जीया रहे। ऐसा नहीं कि दीये नहीं हैं। उसकी आंखें बंद हैं। इसलिए अंधों की न सुनो! जरा अपनी आंखें खोलो और देखो मेरी औरदेखो मुझे--देखो उसे जो तुम्हारे सामने खड़ा है। जो तुम्हारा सामना कर रहा है।

गृहदीप यद्यपि प्रज्वलित,
जीते अंधेरे में नेत्रहिन।

सहजता से परिव्याप्त सभीनिकट वह सभी के ...और मैं तुम्हारे इतने निकट हूं....सहजता तुम्हारे इतनी निकट हैतुम उसे कभी भी छू सकते होऔर खो सकते हो और पी सकते हो। तुम मेरे साथ-साथ नाच सकते हो और मेरे साथ समाधि में डूब सकते हो। मैं तुम्हारे इतना निकट हूं--फिर कभी सहजता को तुम अपने इतनी करीब नहीं पाओगे।

पर रहती सदा परे मोहग्रस्त के लिए।

वे लोग समाधि की बात करते हैंऔर पतंजली के सूत्र पढ़ते हैंबड़ी-बड़ी बातें करते हैं। लेकिन जब भी वह महान घटना घटती हैवे विरोध में हो जाते हैं।
मनुष्य के मामले में यह बड़ी हैरानी की बात है। मनुष्य बड़ा अजीब जानवर है। तुम बुद्ध की प्रशंसा कर सकते होलेकिन अगर स्वयं बुद्ध तुम्हारे सामने आकर खड़े हो जाए तो तुम अनकी जरा भी फिकर नहीं करोगेहो सकता है तुम उनके विरोधी बन जाओउनके शत्रु हो जाओ। कयोंजब तुम बुद्ध के बारे में किताब पढ़ते हो तब सब ठीक लगता हैपुस्तक तुम्हारे हाथ में रहती है। जब एक जिंदा बुद्ध का सामना करना होता है तब वह तुम्हारे हाथ में नहीं होतातुम उसके हाथ पड़ जाते हो। इसलिए फिर भयप्रतिरोधफिर भाग उठना चाहते हो वहां से।
और भागने का बढ़िया तरीका यहीं है कि तुम अपने आप को विश्वस दिला दो कि गलत वह है तुम नहींउसी में कुछ गड़बड़ है। यही एक तरीका है--तुम अपने आप को यह सिद्ध करके दिखा दो कि वह गलत है। और बुद्ध में तो तुम एक नहीं हजार ऐसी बातें पाओगे जो गलत दिखाई दे सकती हैं। क्योंकि तुम ही भेंगे होऔर तुम ही अंधे होऔर तुम्हारे मन ही तूफान उठा है। तुम किसी भी चीज का प्रक्षेपण कर सकते हो।
अब इस व्यक्ति ने बुद्धत्व प्राप्त कर लिया है और लोग हैं कि निम्न जाति की स्त्री की बातें कर रहे हैं। उन्होने उस स्त्री की वास्तविकता में जरा भी नहीं झांका है। वे बस एक ही बात सोच रहे हैंकि वह एक तीर बनाने वाली स्त्री है। इसलिए निम्न जाति की हैशूद्र हैअछूत है। एक ब्राह्मण भला अछूत स्त्री को छू कैसे सकता हैएक ब्राह्मण वहां रह कैसे सकता है?
और उन्होंने यह भी सुन रखा है कि वह स्त्री सरहा के लिए खाना पकाती है। यह तो बड़ा भारी पाप हो गयायह तो भ्रष्टता हो गई--एक ब्राह्मण और शूद्र के द्वारा पकाया हुआ खाना खाएएक अछूत के द्वाराएक निम्न जाति की स्त्री के द्वाराऔर एक ब्राह्मण को श्मशान में रहने की क्या जरूरत हैब्राह्मण श्मशान में कभी नहीं रहतें। वे तो मंदिरों में रहते हैंराजमहलों में रहते हैं। श्मशान में क्योंऐसी गंदी जगह जहां चारों और खोपड़ियां और लाशें बिखरी पड़ी हो। यह तो निरी विकृति है।
लेकिन उन्होंने इस तथ्य की और कभी नहीं देखा कि जब तक तुम मृत्यु को नहीं जानते तब तक जीवन को भी नहीं जान पाओगे। अगर तुमने मृत्यु को उसकी गहराई में न देख लिया हो और पाया हो कि जीवन कभी नहीं मरताअगर तुमने देखा होमृत्यु में गहरे प्रवेश किया हो यह पाया हो कि जीवन तो मृत्यु के बाद भी जारी रहता हैकि मृत्यु से कोई फर्क नहीं पड़ताकि मृत्यु तो असार है....तुम्हें जीवन के बारे में कुछ भी पता नहीं--जीवन सनातन हैसमयातित है। तो केवल शरीर मरता हैजो मरा हुआ हैवही मरता है। जो जीवंत है वह जारी रहता है। लेकिन यह जानने के लिए गहरे प्रयोग करने होंगे। वह इस बात की और ध्यान नहीं देंगे।
अब उन्होंने सुन रखा था कि सरहा तो बड़े विचित्र ढंग का व्यवहार करते हैंऔर फिर उन्होंने कई तरह की बढ़ा-चढ़ा कर बातें की होंगीनिश्चय ही बात उनके बस के बाहर की हो गई होगी। हर आदमी बात को बढ़ा-चढ़ा कर करता है। और तंत्र में तो ऐसे कई प्रयोग हैं जिनको लेकर उलटी-सीधी बातें उड़ाई जा सकती हैं।
तंत्र में एक प्रयोग होता है जिसमें पुरुष स्त्री के सामने बैठता हैनग्न स्त्री के सामनेऔर वह उस स्त्री के अंग-प्रत्यंग को इतनी गहराई से देखता है कि एक दिन उसकी नग्न स्त्री को देखाने की इच्छा ही विसर्जित हो जाती है। तब वह आदमी रूप से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। अब यह एक बड़ी भारी प्रक्रिया हैवरना तुम तो हरदम अपने मन में नग्न स्त्री को देखते रहते हो। एक स्त्री सड़क से गुजरी कि तुम उसके कपड़े उतार लेना चाहते हो--यह होता है।
अब तुम एकाएक सरहा को एक नग्न स्त्री के साने बैठे हुए देखो तो क्या व्याख्या करोगेतुम खुद जैसे हो वैसी व्याख्या करोगे। तुम कहोगे, ‘ठीक हैजो हम करना चाहते थेवह कर रहा हैतो हम तो उससे बेहतर हैंकम से कम हम वैसा कर तो नहीं रहे हैं। हांहम कल्पना जरूर कर लेते हैं, विचारों मेंलेकिन क्रिया में वैसा कभी नहीं करते। यह तो भ्रष्ट हो चुका है।’ और यह कहने का मौका तुम कभी नहीं चूकोगे।
लेकिनअसल में सरहा कर क्या रहे हैंवे जो कर रहे हैं वह एक गुप्त विज्ञान है। तांत्रिक महीनों तक स्त्री को देखता हैउसके शरीर के रूप का ध्यान करता हैउसके सौंदर्य का ध्यान करता है। वह स्त्री के अंग-अंग को देखता हैजो भी देखाना चाहे। अगर स्तनों में कुछ आकर्षण हैतो वह स्तन देखेगाउन पर ध्यान करेगा। वह रूप से मुक्त होना चाहता हैऔर रूप से मुक्त होने का एक मात्र तरीका यही है कि उसे इतनी गहराई से जान लेना कि फिर उसके प्रति कोई आकर्षण ही न बचे।
अब यह हवा उड़ाने वाले जो कह रहे हैंउसके कुछ विपरीत ही यहां हो रहा है। सरहा तो परे जा रहे हैंअब वे कभी भी किसी स्त्री के कपड़े उतारना नहीं चाहेंगे--मन तक में नहींस्नान तक में नहीं। अब वे दमित भाव से ग्रसित कभी नहीं रहेंगे। लेकिन भीड़भीड़ की अपनी ही धारणाएं हैं। अज्ञानीबेहोशी में पड़े हुएतरह-तरह की बातें किए चले जाते हैं।

सहजता से परिव्याप्त सभीनिकट वह सभी के,
पर रहती सदा परे मोहग्रस्त के लिए।
सरिताएं हो अनेकयद्यपि,
सागर मे मिल होती है एक,
हों झूठ अनेक परंतु
होगा सत्य एकविजयी सभी पर।
मिटेगा अंधकारकितना ही हो गहन,
उदित होने पर एक ही सूर्य के।

और सरहा कह रहे हैंजरा मेरी और देखो--सूरज उग गया है। मैं जानता हूंअंधकार कितना ही गहरा क्यों न होएक दिन तो वह मिटेगा। देखो मेरी और...मुझसे सत्य का उदय हुआ है! इसलिए तुम्हारे पास मेरे बारे में भले ही अनेक झूठ होंलेकिन सत्य एक साथ उन सब पर विजयी होकर रहेगा।

सरिताएं हो अनेकयद्यपि,
सागर में मिल होती है एकजरा मेरे नजदीक आओ। जरा तुम्हारी सरिता को मेरे सागर में गिर जाने दोऔर तुम्हें मेरा स्वाद मिल जाएगा।

हो झूठ अनेक परंतु
होगा सत्य एक विजयी सभी पर।

सत्य एक है। झूठ ही अनेक होते हैंझूठ हो ही अनेक सकते हैं--सत्य अनेक नहीं हो सकते। स्वास्थ्य एक है: बीमारियां कई हैं। और अकेला स्वास्थ्य सभी बीमारियों को जीत लेता है। और अकेला सत्य सभी झूठों पर विजय पा लेते हैं। मिटेगा अंधकारकितना ही गहन,

उदित होने पर एक ही सूर्य के।

इन चार सूत्रों में सरहा के राजा को उनके अंतर्तम में प्रवेश करने का आमंत्रण दे दिया हैउन्होंने अपना हृदय खोल दिया है। और वे कहते हैं: मैं’ यहां कोई तुम्हें तर्क के आधार पर मनवाने के लिए नहीं हूं। मैं तो यहां तुम्हें अस्तित्वगत रूप में विश्वास दिलाने के लिए हूं! ने मैं तुम्हें कोई प्रमाण दूंगाऔर न ही मैं तुम्हें अपनी सफाई मैं कुछ कहूंगा। मेरा हृदय खुला है--तुम अंदर प्रवेश करोतुम भीतर आओ। तुम देखो क्या घटित हुआ है....सहजता कितनी निकट हैपरमात्मा कितना निकट हैसत्य कितना निकट है। सूरज उग चुका है। अपनी आंखें खोलो!
समरण रहे बुद्ध के पास कोई प्रमाण नहीं होता। बात ही ऐसी है कि उसके पास कोई प्रमाण ही नहीं हो सकता। वह स्वयः एक प्रमाण है--इसलिए वह अपना हृदय तुम्हारे सामने खोल सकते हैं।
ये पदसरहा के ये गीत गहन ध्यान करने योग्य हैं। प्रत्येक गीत तुम्हारे हृदय में एक फूल खिला सकता है। जिस तरह राजा के अंतर्तम में खिलें। इस बात की मैं आशा रखता हूं। राजा मुक्त हुआ--तुम भी हो सकते हो। सरहा ने तो लक्ष्य भेद लिया। तुम भी सरहा बन सकते हो--वह जिसका तीर लग चुका है।

आज इतना ही

(तीर्थ - 11) : अंतिम पोस्‍ट (वृक्ष के माध्‍यम से संवाद)

तीर्थ है, मंदिर  है, उनका सारा का सारा विज्ञान है। और उस पूरे विज्ञान की अपनी सूत्रबद्ध प्रक्रिया है। एक कदम उठाने से दूसरा कदम उठना है, दूस...