Tuesday, September 12, 2023

(तीर्थ - 11) : अंतिम पोस्‍ट (वृक्ष के माध्‍यम से संवाद)

तीर्थ है, मंदिर  है, उनका सारा का सारा विज्ञान है। और उस पूरे विज्ञान की अपनी सूत्रबद्ध प्रक्रिया है। एक कदम उठाने से दूसरा कदम उठना है, दूसरा उठाने से तीसरा उठता है। पीछे चौथा उठता है और परिणाम होता है। यदि एक भी कदम बीच में खो गया तो, एक भी सूत्र बीच में खो गया तो। परिणाम नहीं होता। एक और बात इस संबंध में ख्‍याल में ले लेनी चाहिए कि जब भी कोई सभ्‍यता बहुत विकसित हो जाती है और जब भी कोई विज्ञान बहुत विकसित हो जाता है। तो ‘’रिचुअल’’ सिम्‍पलीफाइड़ हो जाता है। काम्प्लैक्स नहीं रह जाता। जब वह काम विकसित होता है तब उसकी प्रक्रिया बहुत जटिल होती है। पर जब पूरी बात पता चल जाती है। तो उसके क्रियान्‍वित करने की जो व्‍यवस्‍था है वह बिलकुल सिम्पलीफाइड़ और सरल जो जाती है।

     अब इससे सरल क्‍या होगा की आप बटन दबा देते है और बिजली जल जाती है। लेकिन आप सोच सकते है कि जिसने बिजली बनायी, क्‍या उसने बटन दबाकर बिजली जला ली होगीं। अब इससे सरल क्‍यो होगा कि जो मैं बोल रहा हूं वह रिकार्ड  हो रहा है। कुछ भी तो नहीं करना पड़ रहा है हमें। लेकिन आप सोचते है, इतनी आसानी से वह टेप रिकार्डर बन गया। अगर मुझसे कोई पूछे कि क्‍या करना पड़ता है, तो मैं कहूंगा बोल दो और रिकार्ड हो जाता है। लेकिन इस तरह वह बन नहीं गया है।

      जितना विज्ञान विकसित होता है उतना ही सिम्‍पलीफाइड़ प्रोसेसर, उतनी ही सरल प्रक्रिया  हो जाती है। तभी तो जनता के हाथ में पहुँचती है, नहीं तो जनता के हाथ कभी पहुंच न सकेगी। जनता के हाथ में तो सिर्फ आखिरी नतीजे पहुंचते है जिनसे वह काम करना शुरू कर देती है।

      धर्म के मामले में भी यही होता है। जब धर्म की कोई खोज होती है, जब महावीर कोई सूत्र खोजते है, तो आप ऐसा मत सोचना कि सरलता से मिल जाता है। महावीर का तो पूरा जीवन दांव पर लगता है, लेकिन जब आपको मिलता है तब बिलकुल सरलता से मिल जाता है। तब तो आपको भी बटन दबाने जैसा ही मामला होता है। और यही कठिनाई भी है,क्‍योंकि आखिर में खोजने वाला तो खो जाता है बटन आपके हाथ में रह जाता, जिसको आप एक्स प्लेन नहीं कर पात। फिर आप नहीं बता पाते कि कैसे करेंगे, इससे काम होगा कैसे?

      अभी रूस और अमरीका दोनों के वैज्ञानिक इस बात में उत्‍सुक है कि किसी भी तरह बिना किसी माध्‍यम के विचार संक्रमण के टेलीपैथी से सूत्र खोज लिए जाएं। क्‍योंकि जब से लूना खो गया है उसके रेडियो के बंद हो जाने से यह खतरा  खड़ा हो गया है कि मशीन पर अंतरिक्ष में भरोसा नहीं किया जा सकता हे। अगर रेडियो बंद हो गया तो हमारे यात्री सदा के लिए खो जाएंगे, फिर उनसे हम कभी संबंध ही न बना पाएंगे। हो सकता है, वह कोई ऐसी चीजें भी जान लें जो बताना चाहें लेकिन हमसे कोई संबंध नही पाएगा। तो आल्‍टरनेट सिस्टम की जरूरत है कि जब मशीन बंद हो जाए तो भी विचार  का संक्रामण हो सके।

      इसलिए रूस और अमरीका दोनों के वैज्ञानिक टेलीपैथी के लिए भारी रूप से उत्‍सुक है। अमरीका ने एक छोटा सा कमीशन बनाया है जो तीन साल, चार साल सारी दुनिया में घूमा। उस कमीशन ने जो रिपोर्ट दी वह बहुत घबड़ाने वाली है, लेकिन वह सब रिचुअल मालूम होता है। क्‍योंकि उसने देख कि ऐसी घटनाएं घटती है। लेकिन कैसे घटती है यह वह करने वाले भी नहीं बता सकते।

      उसने लिखा है कि अमरीका में एक छोटा सा कबीला बड़ी हैरानी का काम करता है। हर गांव में  एक छोटा सा वृक्ष हो ता है एक खास जाति का, जिससे मैसेज भेजने का काम लिया जाता है--वृक्ष से। पति गांव गया हुआ है बाजार में सामान लेने, पत्‍नी को ख्‍याल आ गया कि वह फलां सामान तो भूल गई, तो जाकर उस वृक्ष को कह देती है कि देखो वहां फलां सामान जरूर ले आना। वह मैं सेज डिलीवर हो जाता है। वह आदमी सांझ को लौटता है तो वह सामान ले आता है। कमीशन के लोगों ने देखा, वह तो घबरा देने जैसी बात थी।

      हम फोन देखकर नहीं घबड़ाते। हम फोन पर बात करते नहीं घबड़ाते। ऐ आदिवासी देखकर घबड़ा जाता है। कि यह क्‍या मामला है, आप किससे बात कर रहे है। हम बात कर रहे है, क्‍योंकि हमें पूरी सिस्‍टम का ख्‍याल है इसलिए हम नहीं घबड़ाते। वायर लेस से हम बात करते है, तो भी हम नहीं घबड़ाते क्‍योंकि सिस्टम का हमें पता है। और वह परिचित है।

      पर यह जानकर हैरान होते है कि इस वृक्ष से कैसे संवाद हो रहा है। उस कमीशन के लोगों ने दो-चार दिन सब तरह के प्रयोग करके देख लिए। उन स्‍त्रियों से पूछा, गांव के लोगों से पूछा। उन्‍होंने कहां, यह तो हमें पता नहीं लेकिन ऐसा सदा होता है। यह वृक्ष की शाखा को लगाते चले जाते है, यहीं एक सनातन नियम है। इसको हमारे बाप-दादों ने और उनके बाप-दादों ने, सबने इसका उपयोग किया। यह सदा से ही काम दे रहा है, यह क्‍या होता है।

      यह वैज्ञानिक की पकड़ के एकदम बाहर की बात हे। और जो कर रहा है, उसको भी पता नहीं है। इस वृक्ष की प्राण ऊर्जा का टेलीपैथी के लिए उपयोग किया जा रहा है। यह कैसे किया गया शुरू, और यह वृक्ष कैसे राज़ी हुआ कैसे इस वृक्ष ने काम करना शुरू कर दिया। और हजारों साल से कर रहा है काम, यह उस गांव के लोगों को कुछ नहीं पता । वह ‘’कुंजी’’  तो खो गयी हे, जिसने आविष्‍कार किया होगा। उसने किया होगा, पर वह काम ले रहे है उस वृक्ष से, उस वृक्ष को लगाए चले जा रहे है।

      अब बुद्ध के बोधि-वृक्ष को बौद्ध नहीं मरने देते। यह इस वृक्ष की बात समझकर आपको ख्‍याल में आ सकेगा कि उसका कुछ उपयोग है। जिस बोधि-वृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञान हुआ, उसको मरने नहीं दिया गया। असली सूख गया, तो उसकी शाखा अशोक ने भेज दी श्री लंका में, तो वहां वह वृक्ष था। अभी उसकी शाखा को फिर लाकर पुन: आरोपित कर दिया, लेकिन वही वृक्ष कंटीन्‍यूटी में रखा गया। इस बोध गया के तीर्थ का उपयोग है, वह इस बोधि-वृक्ष पर निर्भर है सब कुछ।

      इस वृक्ष के नीचे बैठकर बुद्ध ने ज्ञान पाया। और जब बुद्ध जैसे व्‍यक्‍ति के ज्ञान की घटना घटती है तो जिस वृक्ष के नीचे बुद्ध बैठे थे वह वृक्ष बुद्ध के बुद्धत्व को पी गया हो तो बहुत हैरानी नहीं है। यह असाधारण घटना है—बुद्ध का बुद्धत्‍व को प्राप्‍त होना, अलौकिक हो जाना है इस व्‍यक्‍ति का उस वक्‍त एक कौंध बिजली पैदा हुई होगी, अगर आकाश से बिजली चमकती है और वृक्ष सूख जाता है तो कोई कारण नहीं है कि बुद्ध में चेतना की बिजली चमके इतना तेज फैले और वृक्ष किन्‍हीं नए अर्थों में जीवंत न हो जाए। वैसा कोई दूसरा वृक्ष

नहीं है।

      बुद्ध के गुप्‍त संदेश थे तभी इस वृक्ष को कभी नष्‍ट नहीं होने दिया गया। और बुद्ध ने कहा था, मेरी पूजा मत करना, इस वृक्ष की पूजा से काम चल जाएगा। इसलिए पाँच सौ साल तक बुद्ध की मूर्ति नहीं बनाई गयी। इस बोधि वृक्ष की मूर्ति बनाकर पूजा चलती थी। पाँच सौ साल बाद तक बुद्ध के जितने मंदिर थे वह बोधि वृक्ष की ही पूजा करते रहे है। जो चित्र है उनमें बुद्ध नहीं है बीच में सिर्फ ऑरा है। बुद्ध का प्रकाश है, बोधि-वृक्ष का जो अपयोग जानते है वे आज भी इस वृक्ष के द्वार बुद्ध से संबंध स्‍थापित कर सकते है।

      तो बोध गया नहीं है मूल्‍यवान मूल्‍य वान वह बोधिवृक्ष  है। उस बोधि वृक्ष के नीचे बरसों तक बुद्ध संक्रमण करते रहे। उनके पैर के पूरे निशान रखे गए है। जब वह ध्‍यान करते-करते थक जाते तो उस वृक्ष के पास घूमने लगते, वह घंटों उस वृक्ष के पास घूमते रहते । बुद्ध किसी के साथ इतने ज्‍यादा नहीं रहे जितने उस वृक्ष के साथ रहे, उस वृक्ष से ज्‍यादा बुद्ध के साथ कोई नहीं रहा। और इतनी सरलता से कोई आदमी रह भी नहीं सकता जितनी सरलता से वह वृक्ष रहा। बुद्ध उसके नीचे सोये भी है। उसके नीचे बैठे है उठे है। बुद्ध इसके आस-पास चले है। बुद्ध ने उससे बातें की होंगी, बुद्ध उससे बोले भी होंगे। उस वृक्ष की पूरी जीवन उर्जा  बुद्ध से आविष्ट है।

      जब अशोक ने भेजा आपने बेटे महेंद्र को लंका तो उसके बेटे ने कहा,मैं भेंट क्‍या ले जाऊँ? उन्‍होंने कहा,और तो कोई भेंट हो भी नहीं सकती इस जगत में एक ही भेंट हमारे पास में है कि तुम इस बोधि-वृक्ष की एक शाखा ले जाओ। तो उस साखा को लगाया गया,आरोपित किया गया। दुनियां में कभी किसी सम्राट ने किसी वृक्ष की शाखा किसी को भेट नहीं दी होगी। वह कोई भेट है, लेकिन सारा लंका आंदोलित हुआ उस साखा की वजह से। और लोग समझते है, महेंद्र ने लंका को बौद्ध बनाया, गलत समझते है। उस शाखा ने बनाया महेंद्र की कोई हैसियत न थी। महेंद्र साधारण हैसियत का आदमी था।

      अशोक की लड़की भी साथ में थी संध मित्रा उन दोनों की उतनी बड़ी हैसियत न थी। लंका का कन्‍वर्शन इस बोधि-वृक्ष की शाखा के द्वारा किया गया कन्‍वर्शन है। यक बुद्ध  के ही सीक्रेट संदेश थे कि लंका में इस वृक्ष की शाखा पहुंचा दी जाए। ठीक समय की प्रतीक्षा की जाए और ठीक व्‍यक्‍ति की। और जब ठीक व्‍यक्‍ति आ जाए तो इसको पहुंचा दिया गया। क्‍योंकि इसी से वापस किसी दिन हिंदुस्‍तान में फिर इस वृक्ष को लाना पड़ेगा। ये सारी की सारी अंतर् कथाएं है, जिसको कहना चाहिए गुप्‍त इतिहास है जो इतिहास के पीछे चलता है। इनके लिए ठीक व्‍यक्‍तियों का उपयोग करना पड़ता है।

      संध मित्रा और महेद्र दोनों बौद्ध भिक्षु थे, बुद्ध के जीवन में थे। हर किसी के साथ नहीं भेजी जा सकती थी वह शाखा। जो बुद्ध के पास जिया हो जिसने जाना हो, और जो इस शाखा को वृक्ष की शाखा मानकर न ले जाए। जीवंत बुद्ध मानकर ले जाए, उसके ही हाथ में दी जा सकती थी। फिर लौटने की भी प्रतीक्षा करनी जरूरी है। उसे वृक्ष को ठीक लोगों के हाथ से वापस आना चाहिए। ठीक लोगों के द्वारा वापस आना चाहिए।

      इस इतिहास के पीछे जो इतिहास है वह बात करने जैसा है। असली इतिहास वहीं है, जहां घटनाओं के मूल स्‍त्रोत घटित होते है। जहां जड़ें होती है। फिर तो घटनाओं का एक जाल है जो ऊपर चलता है। वह असली इतिहास नहीं है। जो अख़बार मैं छपता है और किताब में लिखा जाता है। वह असली इतिहास नहीं है। कभी असली इतिहास पर हमारी दृष्‍टि हो जाए तो फिर इन सारी चीजों का राज समझ में आता हे।

--ओशो  ( मैं कहता आंखन देखी)

‘’गहरे पानी पैठ’’: अंतरंग चर्चा

वुडलैण्‍ड, बम्‍बई, दिनांक—6 जून 1971

(तीर्थ -10) : कैलाश अलौकिक निवास है


दो तीन बातें सिर्फ उल्‍लेख कर दूँ जो घटित होती है। जैसे कि आप कहीं भी जाकर एकांत में बैठकर साधना करें तो बहुत कम संभावना है कि आपको अपने आस पास किन्‍हीं आत्‍माओं की उपस्थिति का अनुभव हो। लेकिन तीर्थ में करें तो बहुत जोर से होगा। कहीं भी करें वह अनुभव नहीं होगा, लेकिन तीर्थ में आपको प्रेजेंस मालूम पड़ेगी—थोड़ी बहुत जोर से होगा। बहुत गहरा होगा। कभी इतनी गहन हो जाती है कि आप स्‍वयं मालूम पड़ेंगे कि कम है, और दूसरे की प्रेजेंस ज्‍यादा है।

      चाँद के संबंध में जो लोग और तरह से खोज करते है, उनका ख्‍याल नहीं है कि चाँद निर्जन हे। और जिन्‍होंने कैलाश का अनुभव किया है वह कभी नहीं मानेंगे कि चाँद निर्जन है। लेकिन आपके यात्री को चाँद पर कोई मिलेगा! जरूरी नहीं है इससे कि कोई न हो, पर आपके यात्री को कोई नहीं मिलेगा। जैनों के ग्रंथों में बहुत वर्णन है कि चाँद पर किस-किस तरह के देवता है, कि क्‍या है, पर अब वे बड़ी मुश्‍किल में पड़ गए है। जब पाया गया कि वहां कोई नहीं है। उनके साधु-संन्‍यासी बड़ी मुश्‍किल में है। वे बेचारे एक ही उपास कर सकते है, उन्‍हें कूद और तो पता नहीं है, वह यह कह सकते है कि तुम असली चाँद पर पहुंचे ही नहीं। वह इसके सिवाय और क्‍या कहेंगे। अभी गुजरात में कोई मुझे कह रहा था कि कोई जैन मुनि पैसा इकट्ठा कर रहे है यह सिद्ध करने के लिए कि तुम असली चाँद पर नहीं पहुंचे। ये वे कभी सिद्ध न कर पाएंगे।

      आदमी असली चांद पर पहुंच गया है। लेकिन उनकी कठिनाई है कि उनकी किताब में लिखा है कि वहां आवास है, वहां इस-इस तरह के देवता रहते है। उनकी किताब में लिखा है, उनको खुद को तो कुछ पता नहीं। किताब तो आवास का कहती है। और अब वैज्ञानिक की रिपोर्ट है कि वहां कोई भी नहीं है। अब क्‍या करना है। तो साधारण बुद्धि जो कर सकती,वह यह है, कि वे लोग चाँद पर नहीं पहुँचे। क्‍योंकि अगर नहीं सिद्ध कर पाए तो ये मानना पड़ेगा कि हमारा शास्‍त्र गलत हुआ। तो वे जिद बाँध रखेंगे कि नहीं, तुम उस जगह नहीं पहुंचे।

      एक जैन मुनि ने तो दावे से यह कहां कि कोई वहां पहुंचा ही नहीं। अब इनकार भी नहीं कर सकते, पहुंचे तो जरूर है, तो फिर कहां पहुंच गए है। कभी-कभी तो हास्यास्पद, रिडीकुलस हो जाती है बात। उन्‍होने कहा, कि वहां देवताओं के जो विमान ठहरे रहते है चारों तरफ, आप किसी विमान पर उतर गए। वह बड़े विराट विमान है। उसी पर उतर कर आप लौट आए है। आप ठीक चाँद की भूमि पर नहीं उतर सके। यह सब पागलपन है, लेकिन इस पागलपन के पीछे कुछ कारण है। यह कारण यह है कि एक धारा है, कोई अंदाजन बीस हजार वर्ष से जैनों की धारा है कि चाँद पर आवास है। पर वह उनके ख्‍याल में नहीं कह वह आवास किस तरह का है। वह आवास कैलास जैसा आवास है। वह आवास तीर्थों जैसा आवास है।

      जब आप तीर्थ पर जाएंगे तो एक तीर्थ वह काशी है जो दिखाई पड़ती है। जहां आप ट्रेन पर से उतर जाएँगे स्‍टेशन से एक तो काशी वह है। काशी के दो रूप है। तीर्थ के दो रूप है। एक तो मृण्‍मय रूप है। यह जो दिखाई पड़ रहा है। जहां कोई भी जाएगा सैलानी और घूमकर लौट आएगा। और एक उसका चिन्‍मय रूप है। जहां वहीं पहुंच जाएगाजो अंतरस्‍थ होगा, जो ध्‍यान में प्रवेश करेगा, तो उसके लिए काशी बिलकुल और हो जाएगी। इधर काशी के सौंदर्य का इतना वर्णन है, और इस काशी को देखो तो फिर लगता है कि वह कवि की कल्‍पना है। इससे ज्यादा गंदी कोई वसती नहीं है। यह काशी जिसको हम देखकर आ रहे है। पर किस काशी की बातें कर रहे हो तुम। किस काशी की बात हो रही है। किस काशी के सौंदर्य की जो अपूर्व है। जैसा कोई नगर नहीं आया है इस जगत में । यह सब तुम किसकी बात कर रहे हो, यही काशी अगर है, तब फिर यह सब कवि कल्‍पना हो गई। नहीं, पर वह काशी भी है। नहीं, पर वह काशी भी है। और एक कान्‍टेक्‍ट फील्ड है यह काशी, यहां उस काशी और इस काशी का मिलन होता है।

      जो यात्री सिर्फ ट्रेन में बैठकर गया है, वह इस काशी से वापस लौटकर आ जाएगा। वह जो ध्‍यान में भी बैठकर गया है वह उस काशी से भी संपर्क साध पाता है। तब इसी काशी के निर्जन घाट पर उनसे भी मिलना हो जाता है जिनसे मिलने की आपको कभी कल्‍पना नहीं होती।

      मैंने अभी बताया,कैलास पर अलौकिक निवास है। करीब-करीब नियमित रूप से। नियम कैलाश का रह है कि कम से कम पाँच सौ बौद्ध-बौद्ध वहां रहे ही, उससे कम नहीं। पाँच सौ बुद्धत्‍व को प्राप्‍त व्‍यक्‍ति कैलाश पर रहेंगे ही। और जब भी एक उनमें से विदा होगा किसी और यात्रा पर, तो दूसरा जब तक न हो तब तक वह विदा नहीं हो सकता। पाँच सौ की संख्‍या वहां पूरी रहेगी। उन पाँच सौ की मौजूदगी कैलाश को तीर्थ बनाती है। लेकिन यह बुद्धि से समझने की बात नहीं हे। इसलिए मैंने पीछे छोड़ रखी। काशी का भी नियमित आंकड़ा है कि उतने संत वहां रहेंगे ही। उनमें कभी कमी नहीं होगी। उनमें से एक को विदा तभी मिलेगी जब दूसरा उस जगह स्‍थापित हो जाएगा।

      असली तीर्थ वहीं है। और उनसे जब मिलन होता है तो तीर्थ में प्रवेश करते है। पर उनके मिलन का कोई भौतिक स्‍थल भी चाहिए। आप उनको कहां खोजते फिरेंगे। उस अशरीरी घटना को आप ने खोज सकेंगे, इसलिए भौतिक स्‍थल चाहिए। जहां बैठकर आप ध्‍यान कर सकें और उस अंतर् जगत में प्रवेश कर सकें, जहां संबंध सुनिश्‍चित है।

      तीर्थ बुद्धि से ख्‍याल में नहीं आएगा। बुद्धि से कोई संबंध नहीं है तीर्थ का। ठीक तीर्थ का अर्थ जो दिखाई पड़ जाता है वह नहीं है—छिपा है, उसी स्‍थान पर छिपा है। दूसरी बात, इस जमीन पर जब भी कोई व्‍यक्‍ति परम ज्ञान  को उपलब्‍ध होकर विदा होता है। तो उसकी करूणा उसे कुछ चिन्‍ह छोड़ देने को कहती है। क्‍योंकि जिनको उसने रास्‍ता बताया। जो उसकी बात मानकर चले, जिन्‍होंने संघर्ष किया, जिन्‍होंने श्रम उठाया, उनमें से बहुत से ऐसे होंगे जो अभी नहीं पहुंच पाए। उनके पास कुछ संकेत तो चाहिए,जिनसे कभी भी जरूरत पड़ने पर वह संपर्क पुन; साध सकें।

      इस जगत में कोई आत्‍मा कभी खोती नहीं। पर शरीर तो खो जाता है। तो उन आत्‍माओं के संपर्क साधने के लिए सूत्र चाहिए। उन सूत्रों के लिए तीर्थों ने ठीक वैसे ही काम किया जैसे कि आज हमारे राडार काम करते है। जहां तक आंखें नहीं पहुँचती वहां तक राडार पहुंच जाते है। जो आंखों से कभी देखें नहीं गए तारे, वह राडार देख लेते है। तीर्थ बिलकुल आध्‍यात्‍मिक राडार का इंतजाम है। जो हमसे छूट गए, जिनसे हम छूट गए, उनसे संबंध स्‍थापित किए जा सकते है।

      इसलिए प्रत्‍येक तीर्थ निर्मित किया गया उन लोगों के द्वारा,जो अपने पीछे कुछ लोग छोड़ है, जो अभी रास्‍ते पर है, जो पहुंच नहीं गए, और जो अभी भटक सकते है। और जिन्‍हें बार-बार जरूरत पड़ जाएगी कि वह कुछ पूछ लें कुछ जान लें। कुछ आवश्‍यक हो जाए। थोड़ी जानकारी उन्‍हें भटका दे सकती है। क्‍योंकि भविष्‍य उन्‍हें बिलकुल ज्ञात नहीं है। आगे का रास्‍ता उन्‍हें बिलकुल पता नहीं है। तो उन सबने सूत्र छोड़े है। और सुत्रों को छोड़ने के लिए विशेष तरह की व्‍यवस्‍थाएं की है—तीर्थ खड़े किए, मंदिर खड़े किए, मंत्र निर्मित किए। मूर्तियां बनायी सबका आयोजन किया। और सबका आयोजन एक सुनिश्‍चित प्रक्रिया है, जिसे हम ‘रिचुअल’ कहते हे, वह एक सुनिश्‍चित प्रकिया है।

      अगर एक जंगली आदिवासी को हम ले आएं और वह आकर देखे कि जब भी प्रकाश करना होता है तो आप अपनी कुर्सी से उठते है, दस कदम चलकर बायी दीवार के पास पहुंचते वहां एक बटन को दबाते है। और बीजली जली जाती है। वह आदी वासी किसी भी तरह न सोच पाएगा कि इस बटन में ओ इस दीवार के भीतर इस बिजली के बल्‍ब से कोई तार जुड़ा है। उसके सोचने का कोई उपास नहीं है।

      उसे यह एक रिचुअल मालूम पड़ेगा। कि यह कोई तरकीब है यहां से उठना,ठीक जगह पर दीवार पर  जाना,फिर नंबर एक का बटन दबाना। नंबर दो का दबाते है तो पंखा घूमने लगता है। नंबर तीन का दबाते है रेडियों बोलने लग जाता है। उसे यह सब रिचुअल मालूम पड़ेगा। एक क्रिया कांड लगेगा। और समझ लें किसी दिन आप नहीं है घर में और बिजली चली गई है। वह आदमी उठा और उसने जाकर पूरा रिचुअल किया, लेकिन बिजली नहीं जली, पंखा नहीं जला,रेडियो नहीं चला। अब वह यही समझे गा कि रिचुअल में कोई भूल हो गई हे।

      अपने क्रिया कांड में कोई भूल हो रही है। शायद हमने ठीक कदम न उठाए। कौन से कदम से पहले सह आदमी गया था। पता नहीं, अंदर-अंदर कोई मंत्र भी पढ़ता हो मन में, और बटन दबाता हो। क्‍योंकि हमने बटन वही दबाया है और बिजली नहीं जल रही है। उस आदिवासी को तो बिजली के पूरे फैलाव का कोई अंदाजा नहीं हो सकता।

      करीब-करीब धर्म के संबंध में ऐसा ही है। जिनको भी हम धर्म के क्रिया-काँड़ कहते है, वह सब हमारे द्वारा पकड़े लिए गए ऊपरी कृत्य है। जो बिलकुल कुछ नहीं जानते व्‍यवस्‍था को, उनको हम पूरा भी कर लेते है, फिर पाते है, कुछ नहीं हो रहा है। या कभी हो जाता है, कभी नहीं होता, तो हम बड़ी मुश्‍किल में पड़ते है। कभी हो जाता है, इससे शक होता है कि शायद होता होगा। फिर कभी नहीं होता तो फिर यह शक होता है कि शायद संयोग से हो गया हो। क्‍योंकि अगर होना चाहिए तो हमेशा होना चाहिए।

      हमें भीतरी व्‍यवस्‍था का कोई भी पता नहीं है। जिस चीज को आप नहीं जानते उसको ऊपर से देखने पर वह रिचुअल मालूम पड़ेगी। ऐसा छोटी-मोटी आदमियों के साथ होता हो ऐसा नहीं, जिनको हम बहुत बुद्धिमान कहते है उनके साथ भी यहीं होगा। क्‍योंकि बुद्धि ही बचकानी चीज है। बड़े से बड़ा बुद्धिमान भी एक अर्थ में जुवेनाइल है, बचकाना ही होता है। क्‍योंकि बुद्धि बहुत गहरे ले जाने वाली नहीं हे।

      जब पहली दफा ग्रामोफोन बना, और फ्रांस के साइंस एकेडमी में जिस वैज्ञानिक ने ग्रामोफोन बनाया वह लेकर गया। तो बड़ी ऐतिहासिक घटना घटी तीन सौ साल पहले। फ्रैंच एकेडमी के सारे बड़े से बड़े वैज्ञानिक सदस्‍य हाजिर थे। कोई सौ वैज्ञानिक घटना देखने आए थे। उस आदमी ने ग्रामोफोन का रिकार्ड चालू  किया, तो जो प्रैजिडेंट था फ्रैंच एकेडमी का, वह थोड़ी देर तो देखता रहा फिर उचक कर उसने उस आदमी की गर्दन पकड़ ली, जो ग्रामोफोन लाया था। क्‍योंकि उसने समझा कि यह कोई ट्रिक कर रहा है गले की, यह हो कैसे सकता है। यह गले में अंदर कोई हरकत कर रहा है। कोई तरकीब इसने लगाई है।

      यह ऐतिहासिक घटना बन गई। क्‍योंकि एक वैज्ञानिक से ऐसी आशा नहीं हो

सकती थी कि वह जाकर उसकी गर्दन पकड़ ले। वह आदमी तो घबराया,उसने कहा कि आप यह क्‍या करते है। उसने कहा देखो तुम मुझको धोखा न दे पाओगें। वह उसका गला दबाए रहा। लेकिन तब भी उसने देखा की आवाज आ रही है। तब तो वह बहुत घबराया । उस आदमी को कहा,तुम बाहर आओ। उसको बहार ले गया। लेकिन तब भी आवाज आ रही थी। वह सौ के सौ वैज्ञानिक सकते में आ गए, उनमें से एक ने खड़े होकर कहां कि यह कोई शैतानी ताकत हे। इसे छूना-ऊना मत इसमें कुछ न कुछ डेवल जरूर है। शैतान इसमें हाथ बंटा रहा है। यह हो कैसे सकता है? आज हमें हंसी आती है। क्‍योंकि अब हो गया...। इसका हमें परिचय है। जो नहीं होता तो भी हम वैसी परेशानी में पड़ जाते।

      अगर किसी दिन एटम गिरे दुनिया पर, यह सभ्‍यता हमारी खो जाए, और किसी आदिवासी के पास एक ग्रामों फोन बच जाए तो उसके गांव के लोग उसको मार डालें। अगर वह ग्रामोफोन बजा दे तो पूरा गांव उसकी जान को आ जाए। क्‍योंकि वह एक्स प्लेन तो कर नहीं पाएगा। यह बता तो नहीं पाएगा कि ये रेकार्ड कैसे बोल रहा है। यह तो आप भी नहीं बता पाओगें। यह बड़े मजे कि बात है। सब सभ्‍यताएं बिलीफ से जीती हे। केवल दो-चार आदमियों के पास कुंजियां होती है। बाकी तो भरोसा होता हे।

      आप भी न बता पाओगें कि यह कैसे बोल रहा है। सुन लेते है, मालूम है कि बोलता है, भर लिया जाता है। बाकी बता पाना बहुत मुश्‍किल है। और उसे बनाना तो लगभग असम्‍भव ही है। बटन दबा देते है। बिजली जल जाली है। रोज जला लेते है। पर आप भी न बता पाओगें कि कैसे जल गई। कुंजियां तो दो चार आदमियों के पास होती है सभ्‍यता की, बाकी सारे लोग तो काम चला लेते है। बस जो काम चलाने वाले है, जिस दिन कुंजियां खो जाए उसी दिन मुश्‍किल में पड़ जाएंगे। उसी दिन उसका आत्‍मविश्‍वास डगमगा जाएगा। उसी दिन वह घबरा नें लगेंगे। फिर अगर एक दफा बिजली न जली तो कठिन हो जाएगा।

--ओशो  ( मैं कहता हूं  आंखन देखी )

(तीर्थ - 9) काशी, पाप-पूण्‍य


आखिरी बात जो तीर्थ के बाबत ख्‍याल ले लेना चाहिए, वह यह कि सिंबालिक ऐक्‍ट का, प्रतीकात्‍मक कृत्‍य का भारी मूल्‍य है। जैसे जीसस के पास कोई आता है और कहता है। मैंने यह पाप किए। वह जीसस के सामने कन्‍फेस कर देता है, सब बता देता है मैंने यह पाप किए। जीसस उसके सिर पर हाथ रख कर कह देते है कि जा तुझे माफ किया। अब इस आदमी न पाप किए है। जीसस के कहने से माफ कैसे हो जाएंगे? जीसस कौन है,और हाथ रखने से माफ हो जाएंगे, जिस आदमी ने खून किया, उसका क्‍या होगा, या हमने कहा, आदमी पाप करे और गंगा में स्‍नान कर ले, मुक्‍त हो जाएगा। बिलकुल पागलपन मालूम हो रहा है। जिसने हत्‍या की है, चोरी की है, बेईमानी की हे, गंगा में स्‍नान करके मुक्‍त कैसे हो जाएगा।

      यह दो बातें समझ लेनी जरूरी है। एक तो यह, कि पाप असली घटना नहीं है। स्‍मृति असली घटना है—मैमोरी । पाप नहीं, ऐक्‍ट नहीं असली घटना जो आप में चिपकी रह जाती है। वह स्‍मृति है। आपने हत्‍या की है। यह उतना बड़ा सवाल नहीं है। आखिर में। आपने हत्‍या की है, यह स्‍मृति कांटे की तरह पीछा करेगी।

      क्राइस्‍ट कहते हैं, तुम कन्‍फेस कर दो, मैं तुम्‍हें माफ किए देता हूं। और जो क्राइस्ट पर भरोसा करता है वह पवित्र होकर लोट गा। असल में क्राइस्‍ट पाप से तो मुक्‍त नहीं कर सकते, लेकिन स्मृति से मुक्‍त कर सकते हे। स्‍मृति ही असली सवाल हे। गंगा पाप से मुक्‍त नहीं कर सकती, लेकिन स्‍मृति से मुक्त कर सकती हे। अगर कोई भरोसा लेकर गया है। कि गंगा में डुबकी लगाने से सारे पाप से बाहर हो जाऊँगा और ऐसा अगर उसके चित में है। उसकी कलेक्‍टव अनकांशेस में है, उसके समाज की करोड़ों वर्ष से छुटकारा नहीं होगा वैसे, क्‍योंकि चोरी को अब कुछ और नहीं किया जा सकता। हत्‍या जो हो गई, हो गयी लेकिन यह व्‍यक्‍ति पानी के बाहर जब निकला तो सिंबालिक एक्‍ट हो गया।

      क्राइस्‍ट कितने दिन दुनिया में रहेंगे, कितने पापी यों से मिलेंगे,कितने पापी कन्‍फेस कर पाएंगे। इसके लिए हिंदुओं ने ज्‍यादा स्‍थायी व्‍यवस्‍था खोजी है। व्‍यक्‍ति से नहीं बांधा। यह नदी कन्‍फेशन लेती रहेगी। वह नदी माफ करती रहेगी, यह अनंत तक रहेगी, और ये धाराएं स्‍थायी हो जाएंगी। क्राइस्‍ट कितने दिन रहेंगे। मुश्‍किल से क्राइस्ट तीन साल काम कर पाए, कुल तीन साल। तीस से लेकर तैंतीस साल की अम्र तक, तीन साल में कितने पापी कन्‍फेस करेंगे। कितने पापी उनके पास आएंगे। कितने लोगों के सिर पर हाथ रखेंगे। यहां के मनीषी यों ने व्‍यक्‍ति से नहीं बांधा, धारा से बाँध दिया।

      तीर्थ है, वहां जाएगा कोई, वह मुक्‍त होकर लौटे गा। तो स्‍मृति से मुक्‍त होगा। स्‍मृति ही तो बंधन है। वह स्वप्न जो आपने देखा, आपका पीछा कर रहा है। असली सवाल वही है, और निश्‍चित ही उससे छुटकारा हो सकता है। लेकिन उस छुटकारे में दो बातें जरूरी है। बड़ी बात तो यह जरूरी है कि आपकी ऐसी निष्‍ठा हो कि मुक्‍ति हो जाएगी। और आपकी निष्‍ठा कैसे होगी। आपकी निष्‍ठा तभी होगी जब आपको ऐसा ख्‍याल हो कि लाखों वर्ष से ऐसा वहां होता रहा है। और कोई उपाय नहीं है।

      इसलिए कुछ तीर्थ तो बिलकुल सनातन है—जैसे काशी, वह सनातन है। सच बात यह है, पृथ्‍वी पर कोई ऐसा समय नहीं जब काशी तीर्थ नहीं था। वह एक अर्थ में सनातन है। बिलकुल सनातन है। यह आदमी का पुरानी से पुराना तीर्थ हे। उसका मूल्य बढ़ जाता है। क्‍योंकि इतन बड़ी धारा, सजेशन। वहां कितने लोग मुक्‍त हुए, वहां कितने लोग शांत हुए है। वहां कितने लोगों ने पवित्रता को अनुभव किया है, वहां कितने लोगों के पाप झड़ गए—वह एक लंबी धारा है। वह सुझाव गहरा होता चला जाता है। वह सरल चित में जाकर निष्‍ठा बन जाएगी। वह निष्‍ठ बन जाए तो तीर्थ कारगर हो जाता हे। वह निष्‍ठा न बन पाए तो तीर्थ बेकार हो जाता है। तीर्थ आपके बिना कुछ नहीं कर सकता। आपका कोऔपरेशन चाहिए। लेकिन आप भी कोऔपरेशन तभी देते है कि जब तीर्थ की एक धारा हो एक इतिहास हो।

      हिंदू कहते है, काशी इस जमीन का हिस्‍सा नहीं है। इस पृथ्वी का हिस्‍सा नहीं है। वह अलग ही टुकडा है। वह शिव की नगरी अलग ही है। वह सनातन है। सब नगर बनेंगे, बिगड़े गे काशी बनी रहेगी। इसलिए कई दफा हैरानी होती है। व्‍यक्‍ति तो खो जाते है—बुद्ध काशी आये, जैनों के तीर्थकर काशी में पैदा हुए और खो गए। काशी ने सब देखा—शंकराचार्य आए, खो गए। कबीर आए खो गए। काशी ने तीर्थ देखे अवतार देखे। संत देखे सब खो गए। उनका तो कहीं कोई निशान नहीं रह जाएगा। लेकिन काशी बनी रहेगी। वह उन सब की पवित्रता को , उन सारे लोगों के पुण्‍य को उन सारे लोगों की जीवन धारा को उनकी सब सुगंध को आत्‍मसात कर लेती है और बना रहती हे।

      यह जो स्‍थिति हे। यह निश्‍चित ही पृथ्‍वी से अलग हो जाती है। मेटाफरीकली। यह इसका अपना एक शाश्‍वत रूप हो गया, इस नगरी का अपना व्‍यक्‍तित्‍व हो गया। इस नगरी पर से बुद्ध गूजरें, इसकी गलियों में बैठकर कबीर ने चर्चा की है। यह सब कहानी हो गयी। वह सब स्वप्नवत् हो गया। पर यह नगरी उन सबको आत्‍मसात किए है। और अगर कभी कोई निष्‍ठा से इस नगरी में प्रवेश करे तो वह फिर से बुद्ध को चलता हुआ देख सकता है वह फिर से पाश्रर्वनाथ को गुजरते हुए देख सकता है। वह फिर से देखेगी तुलसी दास को वह फिर से देखेगी कबीर को।     

      अगर कोई निष्‍ठा से इस काशी के निकट जाए तो यह काशी साधारण नगरी ने रह जाएगी लंदन या बम्‍बई जैसी। एक असाधारण चिन्‍मय रूप ले लेगी। और इसकी चिन्मय ता बड़ी पुरातन है। इतिहास खो जाते है। असभ्यताऐं बनती है। आती है और चली जाती है। और यह अपनी एक अंत: धारा करने के प्रयोजन है। आप भी हिस्‍सा हो गए है एक अंत धारा को संजोए हुए चलती है। इसके रास्‍ते पर खड़ा होना,इसके घाट पर स्‍नान करना इसमें बैठकर ध्‍यान करने के प्रयोजन है। आप भी हिस्‍सा हो गए है एक अंत: धारा के। यह भरोसा कि मैं ही सब कुछ कर लुंगा,खतरनाक है। प्रभु का सहारा लिया जा सकता है, अनेक रूपों में—उसके तीर्थ में, उसके मंदिरों में उसका सहारा लिया जा सकता है। सहारे के लिए यह सारा आयोजन है।

      यह कुछ बातें जो ठीक से समझ में आ सकें वह मैंने कहीं। बुद्धि जिनको देख पाये समझ पाये, पर यह पर्याप्‍त नहीं है। बहुत सी बातें है तीर्थ के साथ,जो समझ में नहीं आ सकेंगी पर घटित होती है। जिनको बुद्धि साफ-साफ नहीं देख पाएगी। जिनका गणित नहीं बनाया जा सकेगा। लेकिन घटित होती है।

(मैं कहता आंखन देखी्) - ओशो 

(तीर्थ - 8) कुंभ, स्‍नान ओर रहस्‍य

तीसरी बात एक और थी। यह हमारा भ्रम ही है आमतौर से कह हम अलग-अलग व्‍यक्‍ति है—यह बड़ा थोथा भ्रम है। यहां हम इतने लोग बैठे है, अगर हम शांत होकर बैठें तो यहां इतने लोग नहीं रह जाते, एक ही व्‍यक्‍तित्‍व रह जाता है। और हम सब की चेतनाएं एम दूसरे में तरंगित और प्रवाहित होने लगती है।

तीर्थ ‘मास एक्‍सपेरीमेंट’ एक वर्ष में विशेष दिन, करोड़ों लोग एक तीर्थ पर इकट्ठे हो जाएंगे; एक ही आकांक्षा ,एक ही अभीप्‍सा से सैकड़ों मील की यात्रा करके आ जाएंगे। वह सब एक विशेष घड़ी में , एक विशेष तारे के साथ, एक विशेष नक्षत्र में एक जगह इकट्ठे हो जाते है। इसमें पहली बात समझ लेने की यह है, कि यह करोड़ों लोग इकट्ठा होकर एक अभीप्‍सा, एक आकांक्षा, एक पार्थ ना से एक धुन करते हुए आ गए है, यह एक ‘पुल’ बन गया है। चेतना का। अब यहां व्‍यक्‍ति नहीं है।

   अगर कुंभ में देखे तीर्थ ‘मास एक्‍सपेरीमेंट’ एक वर्ष में विशेष दिन, करोड़ों लोग एक तीर्थ पर इकट्ठे हो जाएंगे; एक ही आकांक्षा ,एक ही अभीप्‍सा से सैकड़ों मील की यात्रा करके आ जाएंगे। वह सब एक विशेष घड़ी में , एक विशेष तारे के साथ, एक विशेष नक्षत्र में एक जगह इकट्ठे हो जाते है। इसमें पहली बात समझ लेने की यह है, कि यह करोड़ों लोग इकट्ठा होकर एक अभीप्‍सा, एक आकांक्षा, एक पार्थ ना से एक धुन करते हुए आ गए है, यह एक ‘पुल’ बन गया है। चेतना का। अब यहां व्‍यक्‍ति नहीं है।

तो व्‍यक्‍ति दिखाई नहीं पड़ता। वहां भीड़ है, निपट भीड़, जहां कोई चेहरा नहीं है। चेहरा बचेगा कहां इतनी भीड़ में, फेसलेस एक करोड़ आदमी इकट्ठे है। कौन, कौन  है? अब कोई अर्थ नहीं रह गया जानने का। कौन राजा है, और कौन रंक हे। अब कोई मतलब नहीं रह गया। कौन अमीर है, कौन गरीब है, कोई मतलब नहीं रहा, यानी सब फेसलेस हो गया। अब यहां इन सबकी चेतनाएं एक दूसरे के भीतर प्रवाहित होनी शुरू होंगी। अगर एक करोड़ लोगों की चेतना का पूल बन सके,एक इकट्ठा रूप बन जाए, तो इस चेतना के भीतर परमात्‍मा का प्रवेश जितना आसान है उतना आसान एक-एक व्‍यक्‍ति के भीतर नहीं है। यह बड़ा कान्‍टेक्‍ट फील्‍ड है।

      नीत्‍से ने कहीं लिखा है—यह सुबह एक बग़ीचे से गुजर रहा है। एक छोटे से कीड़े पर उसका पैर लग जाता है। तो वह कीड़ा जल्‍दी से सिकुड़कर गोल घुंडी बनाकर बैठ जाता है। नीत्‍से बड़ा हैरान हुआ। उसने कई दफा यह बात देखी है कि कीड़ों को जरा चोट लग जाए तो वह तत्‍काल सिकुड़कर क्‍यों बैठ जाते है। उसने अपनी डायरी में लिखा है कि बहुत सोचकर मुझे खयाल में आया कि वह अपना कान्‍टेक्‍ट फील्‍ड़ कम कर लेते है। बचाव का ज्‍यादा उपाय हो जाता है। कीड़ा पूरा लंबा है, तो उस पर कहीं पैर पड़ सकता है। क्‍योंकि ज्‍यादा जगा वह घेर रहा है। वह जल्‍दी से छोटी जगह में सिकुड़ गया, अब उस पर पैर पड़ने की संभावना अनुपात में कम हो गयी। वह सुरक्षा कर रहा है अपनी। वह अपनी कान्‍टेक्‍ट फील्‍ड़ को छोटा कर रहा है। और जो कीड़ा जितना जल्‍दी यह कान्‍टेक्‍ट फील्‍ड़ छोटा कर लेता है वह उतना बचाव कर लेता है।

      आदमी की चेतना जितना बड़ा कान्‍टेक्‍ट फील्‍ड निर्मित करती है, परमात्‍मा का अवतरण उतना आसान हो जाता है। क्‍योंकि वह इतनी बड़ी घटना है। एक बड़ी घटना के लिए हम जितना बड़ी जगह बना सके उतनी उपयोगी है। इंडीवीजुअल प्रेयर, व्‍यक्‍तिगत प्रार्थना तो बहुत बाद में पैदा हुई, प्रार्थना का मूल रूप तो समूह गत है। वैयक्‍तिक प्रार्थना तो तब पैदा हुई जब एक-एक आदमी को भारी अहंकार पकड़ना  शुरू हो गया। किसी के साथ ‘’पूल-अप’’ होना मुश्‍किल हो गया कि किसी के साथ हम एक हो सकें।

      इसलिए जब इंडीवीजुअल प्रेयर दुनिया में शुरू हुई तब ये प्रेयर का फायदा खो गया। असल में प्रेयर इंडीवीजुअल नहीं हो सकती। हम इतनी बड़ी शक्‍ति का आह्वान कर ही नहीं सकते। तो हम जितना बड़ा क्षेत्र दे सकें उसके अवतरण के लिए उतना ही सुगम होगा। तीर्थ इस रूप में एक बड़े क्षेत्र को निर्मित करते है। फिर खास घड़ी में करते है खास नक्षत्र में , उस घड़ी उस नक्षत्र में खास दिन करते है। खास वर्ष में करते है। वह सब सुनिश्‍चित विधियां थी। इसका अर्थ यह कि उस नक्षत्र में उस घड़ी में पहले भी कान्‍टेक्‍ट हुआ है। और जीवन की सारी व्‍यवस्‍था पीरियोडिकल है। इसे भी समझ लेना चाहिए।

      जीवन की सारी व्‍यवस्‍था कैसे पीरियोडिकल है। जैसे कि वर्षा आती है, एक खास दिन पर आ जाती है। और अगर आज नहीं आती है खास दिन पर, तो उसका कारण यह है कि हमने छेड़छाड़ की है। अन्‍यथा दिन बिलकुल तय है, घड़ बिलकुल ठीक है, गर्मी आती है खास वक्‍त, सर्दी आती है खास वक्‍त, वसंत आता है खास वक्‍त—सब बंधा है। शरीर भी बिलकुल वैसा ही काम करता है।

      स्‍त्रियों का मासिक धर्म है, ठीक चाँद के साथ चलता रहता है। ठीक अट्ठाईस दिन में उसे लौट आना चाहिए, अगर बिलकुल ठीक है, शरीर स्‍वस्‍थ है। वह चाँद के साथ यात्रा करता है। वह अट्ठाईस दिन में नहीं लौटता तो क्रम टूट गया है व्‍यक्‍तित्‍व का, भीतर कहीं कोई गड़बड़ हो गयी है।

      सारी घटनाएं एक क्रम में आवर्तित होती है। अगर किसी एक घड़ी में परमात्‍मा का अवतरण हो गया, तो उस घड़ी को हम अगले वर्ष के लिए फिर नोट कर सकते है।  अब संभावना उस घड़ी की बढ़ गयी , वह घड़ी ज्‍यादा पोटेंशियल हो गयी,उस घड़ी में परमात्‍मा की धारा पुनर् प्रवाहित हो सकती है। इसलिए पुन: पुन: उस घड़ी में तीर्थ पर लोग इकट्ठे होते रहेगे। सैकड़ों वर्षो तक। अगर वह कई बार हो चुका तो यह घड़ी सुनिश्‍चित होती जाएगी। वह बिलकुल तय हो जाएगी।

      जैसे कि कुंभ के मेले पर गंगा में कौन पहले उतरे, वह भारी दंगे का करण होता है। क्‍योंकि इतने लोग इकट्ठे नहीं उतर सकते एक घड़ी में ,और वह घड़ी तो बहुत सुनिश्‍चित है बहुत बारीक है। उसमें कौन उतरे, उस पहली घड़ी में जिन्‍होनें यह घड़ी खोजी है या जिनकी परंपरा और जिनकी धारा में उस घड़ी का पहले अवतरण हुआ है, वह उसके मालिक है। वह उस घड़ी में पहले उतर जाएंगे। और कभी-कभी क्षण का फर्क हो जाता है। परमात्‍मा का अवतरण करीब बिजली की कौंध जैसा है—कौंधा, और खो गया। उस क्षण में आप खुले रहे जगह रह तो घटना घट जाए। उस क्षण में आँख बंद हो गयी, सोये रहे तो घटना खो जाए।

      तीर्थ का तीसरा महत्‍व था—मास एक्‍सपेरीमेंट, समूह प्रयोग—अधिकतम विराट पैमाने पर उस अनंत शक्‍ति को उतारा जा सके। और जब लोग सरल थे तो यह घटना बड़ी आसानी से घटती थी। उन दिनों तीर्थ बड़े सार्थक थे। तीर्थ से कभी कोई खाली हाथ नहीं लोटता था। इसलिए...तो आज आदमी खाली लौट आता है, खाली लौट आने पर आदमी फिर दोबारा चला जाता है। उन दिनों तो ट्रांसफार्म होकर लौटता था ही। पर वह बहुत सरल और इनोसेंट समाज की घटनाएं है। क्‍योंकि जितना सरल समाज हो, जहां व्‍यक्‍तित्‍व का बोध जितना कम हो, वहां तीर्थ का यह तीसरा प्रयोग काम करेगा, अन्‍यथा नहीं करेगा।

      आज भी अगर आदिवासियों में जाए तो पांएगे कि उनमें व्‍यक्‍तित्‍व का बोध कम होता है। ‘’मैं’’ का ख्‍याल कम है, ‘’हम’’ का ख्‍याल ज्‍यादा है। कुछ तो भाषएं है ऐसी जिसमें ‘’मैं’’ नहीं है। हम ही है। आदिवासी कबीलों की ढेर भाषएं है जिनमें ‘’मैं’’ शब्‍द नहीं है। आदिवासी बोलता है, तो बोलता है ‘’हम’’। ऐसा नहीं है कि भाषा ऐसी है। वहां मैं का कन्‍सेप्‍ट ही पैदा नहीं हुआ। और वह इतना जुड़ा हुआ है आपस में कि कई दफ़ा तो बहुत अनूठे परिणाम उसके निकले है।

      सिंगापुर के पास एक छोटे से द्वाप पर जब पहली दफा पश्‍चिमी लोगों ने हमला किया तो वे बड़े हैरान हुए। जो चीफ़ थ, जो प्रमुख था कबीले का, वह आया किनारे पर, और जो हमलावर थे उनसे उसने कहा कि हम निहत्‍थे लोग  जरूर है। पर हम परतंत्र नहीं हो सकते। पश्‍चिमी लोगों ने कहा कि वह तो होना ही पड़ेगा। उन कबीले वालों ने कहा, हमारे पास लड़ाई का उपाय तो कुछ नहीं है, लेकिन हम मरना जानते हे—हम मर जांएगे। उन्‍हें भरोसा नहीं आया कि कोई ऐसे कैसे मरता है, लेकिन बड़ी अद्भुत घटना है।      

      ऐतिहासिक घटनाओं में एक घटना घट गयी। जब वे राज़ी नहीं हुए और उन्‍होंने कदम रख दिया, द्वीप पर उतर गए, तो पूरा कबीला इकट्ठा हुआ। कोई पाँच सौ लोग तट पर इकट्ठे हुए और वह देखकर दंग रह गए कि उनका प्रमुख पहले मर कर गिर गया। और फिर दूसरे लोग मरकर गिरने लगे। मरकर गिरने लगे बिना किसी हथियार की चोट के। शत्रु घबरा गए, यह देख कर। पहले तो उन्‍होंने समझा कि लोग डर कर ऐसे ही गिर गए होंगे। लेकिन देखा वह तो खत्‍म ही हो गए। अभी तक साफ़ नहीं हो सका कि यह क्‍या घटना घटी, असल में हम की कांशेसनेस अगर बहुत ज्‍यादा हो तो मृत्यु ऐसी संक्रामक हो सकती है। एक के मरते ही फेल सकती है।

      कई जानवर मर जाते है ऐसे। भेड़ मर जाती है—एक भेड़ मरी, कि मरना फैल जाता है। भेड़ के पास ‘’मैं’’ का बोध बहुत कम है, हम का बोध है। भेड़ों को चलते हुए देखे तो मालूम पड़ेगा कि हम चल रहा है, सब सटी हुई है एक दूसरे से, एक ही जीवन जैसे सरकता हो। एक भेड़ मरी, तो दूसरी भेड़ को मरने जैसा हो जाएगा, मृत्‍यु फैल जाएगी भीतर।  

      तो जब समाज बहुत ‘’हम’’ के बोध से भरा था और ‘’मैं’’ का बोध बहुत कम था तब तीर्थ बड़ा कारगर था। उसकी उपयोगिता उसी मात्रा में कम हो जाएगी, जिस मात्रा में ‘’मैं’’ का बोध बढ़ जाएगा।

मैं कहता आंखन देखी - ओशो

(तीर्थ -7) : मिश्र के पिरामिड एक रहस्‍य








सब तीर्थ बहुत ख्‍याल से बनाये गए है। अब जै कि मिश्र में पिरामिड है। वे मिश्र में पुरानी  खो गई  सभ्‍यता के तीर्थ है। और एक बड़ी मजे की बात है कि इन पिरामिड के अंदर....। क्‍योंकि पिरामिड जब बने तब, वैज्ञानिको का खयाल है, उस काल में इलैक्ट्रिसिटी हो नहीं सकती।

      आदमी के पास बिजली नहीं हो सकती। बिजली का आविष्‍कार उस वक्‍त कहां, कोई दस हजार वर्ष पुराना पिरामिड है, कई बीस हजार वर्ष पुराना पिरामिड है। तब बिजली का तो कोई उपाय नहीं था। और इनके अंदर इतना अँधेरा कि उस  अंधेरे में जाने का कोई उपाय  नहीं है। अनुमान यह लगाया जा सकता है कि लोग मशाल ले जाते हों, या दीये ले जाते हो। लेकिन धुएँ का एक भी निशान नहीं है इतने पिरामिड में कहीं । इसलिए बड़ी मुश्‍किल है। एक छोटा सा दीया घर में जलाएगें तो पता चल जाता है। अगर लोग मशालें भीतर ले गए हों तो इन पत्‍थरों पर कहीं न कहीं न कहीं धुएँ के निशान तो होने चाहिए।

      रास्‍ते इतने लंबे, इतने मोड़ वाले है, और गहन अंधकार है। तो दो ही उपाय हैं, या तो हम मानें कि बिजली रही होगी लेकिन बिजली की किसी तरह की फ़िटिंग का कहीं कोई निशान नहीं है। बिजली पहुंचाने का कुछ तो इंतजाम होना चाहिए। दूसरा आदमी सोच सकता है—तेल, धी के दीयों या मशालों का। पर उन सबसे किसी न किसी तरह के निशान पड़ते है, जो कहीं भी नहीं है। फिर उनके भीतर आदमी कैसे जाता रहा है, कोई कहं—नहीं जाता रहा होगा, तो इतने रास्‍ते बनाने की कोई जरूरत नहीं है। पर सीढ़ियाँ है, रास्‍ते है, द्वार है, दरवाजे है, अंदर चलने फिरने का बड़ा इंतजाम हे। एक-एक पिरामिड में बहुत से लोग प्रवेश कर सकते है, बैठने के स्‍थान है अंदर। वह सब किस लिए होंगे। यह पहेली बनी रह गई हे। और साफ नहीं हो पाएगी कभी भी। क्‍योंकि पिरामिड की समझ नहीं है साफ, कि ये किस लिए बनाए गए है? लोग समझते है, किसी सम्राट का फितूर होगा, कुछ और होगा।

   लेकिन ये तीर्थ है। और इन पिरामिड में प्रवेश का सूत्र ही यही है, कि जब कोई अंतर अग्‍नि पर ठीक से प्रयोग करता है तो उसका शरीर आभा फेंकने लगता है। और तब वह अंधेरे में प्रवेश कर सकता है। तो न तो यहां बिजली उपयोग की गई है, न यहां कभी दीया उपयोग किया गया है। न मशाल का उपयोग किया गया है। सिर्फ शरीर की दीप्‍ति उपयोग कि गई थी। लेकिन वह शरीर की दीप्ति अग्‍नि के विशेष प्रयोग से ही होती है। इनमें प्रवेश ही वही करेगा। जो इस अंधकार में मजे से चल सके। वह उसकी कसौटी भी है। परीक्षा भी है, और उसको प्रवेश का हक भी है। वह हकदार भी है।

      जब पहली बार 1905 या 10 में एक-एक पिरामिड खोजा जो रहा था तो जो वैज्ञानिक उस पर काम कर रहा था उसका सहयोगी अचानक खो गया। बहुत तलाश की गई कुछ पता न चला। यहीं डर हुआ कि वह किसी गलियारे में अंदर है। बहुत प्रकाश ओ सर्च लाईट ले जाकर खोजा,वह कोई चौबीस घंटे खोया रहा। चौबीस घंटे बाद, कोई रात दो बजे वह भागा हुआ आया, करीब पागल हालत में। उसने कहा, में टटोल कर अंदर जा रहा था। की कहीं मुझे दरवाजा मालूम पड़ा, मैं अंदर गया और फिर ऐसा लगा कि पीछे कोई चीज बंद हो गई। मैंने लौटकर देखा तो दरवाजा तो बंद हो चुका था। जब मैं आया तब खुला था। पर दरवाजा भी नहीं था कोई, सिर्फ खुला था। फिर इसके सिवाय कोई उपाय नहीं था कि में आगे चला जाऊँ, और मैं ऐसी अद्भुत चीजें देखकर लोटा हूं जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्‍किल है।

      वह इतनी देर गुम रहा, वह पक्‍का है, वह इतना परेशान लोटा है, पक्‍का है, लेकिन जो बातें वह कह रहा है वह भरोसे की नहीं है। कि ऐसी चीजें होंगी। बहुत खोजबीन की गई उस दरवाजे की,लेकिन दरवाजा दुबारा नहीं मिल सका। न तो वह यह बता पाया कि कहां से प्रवेश किया, न यह बता पाया कि वह कहां से निकला। तो समझा गया कि यहाँ तो वह बेहोश हो गया, या उसने कहीं सपना देखा। यहाँ वह कहीं सो गया। और कुछ समझने का चारा नहीं था।

      लेकिन जो चीजें उसने कहीं थी वह सब नोट कर ली गयीं। उस साइकिक अवस्‍था में, स्वप्नवत् अवस्‍था में जो-जो उसने वहां देखीं। फिर खुदाई में कुछ पुस्‍तकें मिलीं जिनमें उन चीजों का वर्णन भी मिला, तब बहुत मुसीबत हो गई। उस वर्णन से लगा कि वह चीजें किसी कमरे में वहां बंद है, लेकिन उस कमरे का द्वार किसी विशेष मनोदशा में खुलता है। अब इस बात की संभावना है कि वह ऐ सांयोगिक घटना थी कि इसकी मनोदशा वैसी रही हो। क्‍योंकि इसे तो कुछ पता नहीं था। लेकिन द्वार खुला अवश्‍य।

      तो जिन गुप्‍त तीर्थों की मैं बात कर रहा हूं उनके द्वार है, उन तक पहुंचने की व्‍यवस्‍थाएं है। लेकिन उस सबके आंतरिक सूत्र है। इन तीर्थों में ऐसा सारा इंतजाम है कि जिनका उपयोग करके चेतना गतिमान हो सके। जैसे कि पिरामिड के सारे कमरे, उनका आयतन एक हिसाब में हे। कभी आपने ख्‍याल किया, कहीं छप्‍पर बहुत नीचा हो, यद्यपि आपके सिर को नहीं छू रहा हो, और यही छप्‍पर थोड़ा सरक कर नीचे आने लगे। हमको दबाए गा नहीं हम से अभी दो फिट ऊँचा है, लेकिन हमें भास होगा कि हमारे भीतर कोई चीज दबने लगी।

      जब नीचे छप्‍पर में आप प्रवेश करते है, तो आपके भीतर कोई चीज सिकुड़ती है। और आप जब ऐ बड़े छप्‍पर के नीचे प्रवेश करते है तो आपके भीतर कोई चीज फैलती हे। कमरे का आयतन इस ढंग से निर्मित किया जा सकता है , ठीक उतना किया जा सकता है जितने में आपको ध्यान  आसान हो जाए। सरलतम हो जाए ध्‍यान आपको,उतना आयतन निर्मित किया जा सकता है। उतना आयतन खोज लिया गया था। उस आयतन का उपयोग किया जा सकता है। आपके भी सिकुडने ओर फैलने के लिए। उस कमरे के भीतर रंग, उस कमरे के भीतर गंध, उस कमरे के भीतर ध्‍वनि—इस सबका इंतजाम किया जा सकता है। जो आपके ध्‍यान के लिए सहयोगी हो जाए।

      सब तीर्थों का अपना संगीत था। सच तो यह है कि सब संगीत, तीर्थों में पैदा हुए। और सब संगीत साधकों ने पैदा किए। सब संगीत किसी दिन मंदिर में पैदा हुए,सब नृत्‍य किसी दिन मंदिर में पैदा हुए। सब सुगंध पहली दफा मंदिर में उपयोग की गई। एक दफा जब यह बात पता चल गई कि संगीत के माध्‍यम से कोई व्‍यक्‍ति परमात्‍मा की तरफ जा सकता है। तो संगीत के माघ्‍यम से परमात्‍मा के विपरीत भी जा सकता है, यह भी ख्‍याल में आ गया। और तब बाद में दूसरे संगीत खोजें गए। किसी गंध से जब कि परमात्‍मा की तरफ जाया जा सकता है। तो विपरीत किसी गंध से कामुकता की तरफ जाया जा सकता है। गंधें भी खोज ली गई। किसी विशेष आयतन में ध्‍यानस्‍थ हो सकता है तो किसी विशेष आयतन में ध्‍यान से रोका जा सकता है। वह भी खोज लिया गया।

      जैसे अभी चीन में ब्ररेन वाश के लिए जहां कैदियों को खड़ा करते है, उस कोठरी का एक विशेष आयतन है। उस विशेष आयतन में ही खड़ा करते है। और उन्‍होंने अनुभव किया कि उस आयतन में कभी-बेशी करने से ब्ररेन वाश करने में मुसीबत पड़ती है। एक निश्चित आयतन , हजारों प्रयोग करके तय हो गया कि इतनी ऊंची, इतनी चौड़ी इतनी आयतन की कोठरी में कैदियों को खड़ा कर दो तो कितनी देर में डिटीरीओरेशन हो जाएगा। कितनी देर में खो देगा वह अपने दिमाग को। फिर उसमें एक विशेष ध्‍वनि भी पैदा करो तो और जल्‍दी खो देगा। खाज जगह उसके मस्‍तिष्‍क पर हेम रिंग करो तो और जल्दी खो देगा।

      वे कुछ नहीं करते, एक मटका ऊपर रख देते है और एक-एक बूंद पानी उसकी खोपड़ी पर टपकता रहता है। उसकी अपनी लय है रिदिम है.....बस, टप-टप वह पानी सर पर टपकता रहता है। चौबीस घंटे वह आदमी खड़ा है, बैठ भी नहीं सकता, हिल भी आयतन इतना है कोठरी का लेट भी नहीं सकता। वह खड़ा है। मस्‍तिष्‍क में पानी टप-टप गिरता जा रहा है। आधा घंटा पूरे होते-होते तीस मिनट पूरे होते-होते सिवाय टिप-टिप की आवाज के कुछ नहीं बचता। आवाज इतनी जोर से मालूम होने लगेगी जैसे पहाड़ गीर रहा है। अकेली आवाज रह जाएगी उस आयतन में और चौबीस घंटे में वह आपके दिमाग को अस्‍त–व्‍यस्‍त कर देगी। चौबीस घंटे के बाद जब आपको बाहर निकालेंगे तो आप वहीं आदमी नहीं होगें। उन्‍होंने आपको सब तरह से तोड़  दिया है।

      ये सारे के सारे प्रयोग पहली दफा तीर्थों में खोजें गए, मंदिरों में खोजें गए। जहां से आदमी को सहायता पहुँचाई जा सके। मंदिर के घंटे है, मंदिर की ध्वनियों है, धूप है, गंध है, फूल है, सब नियोजित था। और एक सातत्य रखने की कोशिश की गई। उसकी कंटीन्यु टी न टूटे, बीच में कहीं कोई व्‍यवधान न पड़े अहर्निश धारा उसकी जारी रखी जाती रही। जैसे सुबह इतने वक्‍त आरती होगी, इतनी देर चलेगी। इस मंत्र के साथ होगी। दोपहर आरती होगी। इतनी देर चलेगी। इस मंत्र के साथ होगी। सांझ आरती होगी: दोपहर आरती होगी, इतनी देर चलेगी,यह क्रम ध्‍वनियों का उस कोठरी में गूंजता रहेगा। पहला क्रम टूटे उसके पहले दूसरा री प्लेस हो जाए। यह हजारों साल तक चलेगा।

      जैसा मैंने कहा—पानी के अगर लाख दफा पुन: पुन: पानी बनाया जाए भाप बनाकर, तो जैसे उसकी क्‍वालिटी बदलती है अल्‍केमी के हिसाब से उसी प्रकार एक ध्‍वनि को लाखों दफा पैदा किया जाए एक कमरे में तो उस कमरे की पूरी तरंग, पूरी गुणवत्‍ता बदल जाती है। उसकी पूरी क्वालिटी बदल जाती है। आस के बीच व्‍यक्‍ति को खड़ा कर देना उसके पास खड़ा कर देना,उसके रूपांतरित होने के लिए आसानी जुटा देगा। और चूंकि हमारा सारा का सारा व्‍यक्‍तित्व को बदलने लगते है। और आदमी इतना बाहर है कि पहले बाहर से ही फर्क उसको आसान पड़ते है, भीतर के फर्क तो पहले बहुत कठिन पड़ते है। दूसरा उपाय था पदार्थ के द्वारा सारी ऐसी व्‍यवस्‍था दे देना कि आपके शरीर को जो-जो सहयोगी हो, वह हो जाए।

ओशो—(मैं कहता आंखन देखी)

(तीर्थ - 6) : गंगा अल्‍केमी का प्रयोग

 

जैसे रात को आपको नींद आती है। रोज आप दस बजे सोते है, दस बजे नींद आने लगेगी। अगर आप टीक जाएं दस बजे और सोने से मना कर दें, तो आप आधा घंटे में..होना तो यह चाहिए था कि नींद और जो से आए। लेकिन आधा घंटे में यह होगा की अचानक अप पाएंगे कि सुबह से भी ज्‍यादा क्रैश हो गए है। और अब नींद आना मुश्‍किल हो जाएगी। यह जो प्वाइंट था। जहां से आप अपनी स्‍थिति में वापस गिर सकते थे, अगर सो गए होते तो....तब आप कंटीन्‍यु रखे होते ..। आपने भीतर की व्‍यवस्‍था तोड़ दी।

      तो शरीर से नया शक्‍ति वापस आ गयी। शरीर ने देख लिया कि आप सोने की तैयारी नहीं कर रहे। जागना ही पड़ेगा। तो शरीर के पास जो रिजर्व है जहां वह शक्‍ति संरक्षित है। जरूरत के वक्‍त के लिए वह अपने छोड़ दी और आप ताजे हो गए। इतने ताजे जितने आप सुबह भी ताजे नहीं थे।

   अब एक आदमी ऊब गया है। एक हजार दफा पानी को बदल चुका है। कहते है उसका गुरु कह रहा है। लाख दफा बदलना है दस लगें, पंद्रह साल लगें, कि कितने साल लगें। वह ऊब गया है। लेकिन बदले चला जा रहा है। बदले चला जा रहा है। एक घड़ी आएगी जब कि उसे ऐसा लगेगा कि अब अगर मैंने एक दफ़ा और बदला तो मैं गिरकर मर ही जाऊँगा। अब बहुत हो गया। इसको अब मैं न सह सकूंगा। लेकिन उस का गुरु कह रहा है। बदले जाओ। और वह  बदलता ही चला जाता है। और लोटता नहीं है।

            उसका ये पानी तो इधर परिवर्तित हो ही रहा है। उसकी चेतना भी भीतर परिवर्तित होती हे। और फिर इस विशिष्‍ट पानी के प्रयोग से चेतना में परिणाम होते है। जैसे गंगा का जो पानी है। अभी तक साफ़ नहीं हो सका की उसमें इतनी विशेषतायें क्‍यों है। विज्ञानिक तरीके से भी जानने के बाद। माना की दुनिया की दुनियां के नदियों के पानी में न हो, लेकिन गंगा की बिलकुल बगल से जो नदिया निकलता है। उस के पानी में भी नहीं है। ठीक उसी पहाड़ से जो नदी निकलती हे। उसके पानी में नहीं। एक ही बादल दोनों नदियों में पानी गिराता हे।  और एक ही पहाड़ की बर्फ पिघलकर दोनों नदियों में जाती है। फिर भी उस पानी में वह क्वालिटी नहीं है। जो गंगा के पानी में है।

      अब इस बात को सिद्ध करना मुशिकल होगा। कुछ बातें है जिनको सिद्ध करना एकदम मुश्‍किल है। लेकिन पूरी गंगा अल्क मिस्ट को प्रयोग है, पूरी की पूरी गंगा। इसको सिद्ध करना मुश्‍किल होगा। मैं आपसे कहता हूं,और बहुत सी बातें जो में कह रहा हूं उसमें से बहुत सी बातें सिद्ध करना मुश्‍किल होगी। पूरी गंगा साधारण नदी नहीं है। पूरी की पूरी गंगा को अल्‍केमिकली शुद्ध करने की चेष्‍टा की गयी है। और इसलिए हिंदुओं ने सारे तीर्थ उसने गंगा के किनारे निर्मित किए है।

      एक महान प्रयोग था गंगा को एक विशिष्‍टता देने का। जो कि दुनिया की किसी नदी में नहीं है। अब तो कैमिस्ट भी राज़ी है कि गंगा का पानी विशेष है। किसी नदी का पानी रख लें,सड़ जायेगा। गंगा का पानी वर्षों नहीं सड़े गा। सड़े गा ही नहीं, सड़ता ही नहीं। इसलिए गंगा जल आप मजे से रख सकते है। उसके पास आप किसी दुसरी बोतल में पानी भरकर रख दें,वह पंद्रह दिन में सड़ जायेगा। पर गंगा जल अपनी पवित्रता और शुद्धता को पूरा कायम रखेगा। किसी जल में भी आप लाशें डाल दें, वह नदी गंदी हो जायेगी। गंगा कितनी ही लाशों को हजम कर जाएगी और कभी गंदी भी नहीं होगी।

      एक और हैरानी की बात है, कि हड्डी साधारणत: नहीं गलती , पर गंगा में गल जाती है। गंगा पूरा पचा डालती है, कुछ भी नहीं बचता उसमें। सभी लीन हो जाता है पंच तत्‍व में। इसलिए गंगा में फेंकने का लाश को आग्रह बना। क्‍योंकि बाकी सब जगह से पूरे पंच तत्‍वों में लीन होने में सैकड़ों, हजारों और कभी लाखों वर्ष लग जाते है। गंगा का समस्‍त तत्‍वों में वापस लौटा देने के लिए बिलकुल केमिकल काम है। वह निर्मित इसलिए की गई,वह पूरी की पूरी नदी साधारण पहाड़ से बही हुई नदी नहीं है। बहाई गयी नदी है। पर वह हमारे ख्‍याल में नहीं आ सकता। और गंगो त्री को यात्री बहुत छोटी-सी जगह है। जहां से गंगा बहती है।

      बड़े मजे की बात यह है कि जहां गंगा त्री को यात्री नमस्‍कार करके लोट आते है। वह फाल्‍स गंगो त्री है। वह सही गंगो त्री नहीं है। सही को सदा बचाना पड़ता है। वह सिर्फ शो है, वह सिर्फ दिखावा है जहां से यात्री को लौटा दिया जाता है। और यात्री नमस्‍कार करके लोट आता है। सही गंगा त्री को तो हजारों साल से बचाया गया है। और इस तरह निर्मित किया गया है कि वहां साधारण पहुंचना संभव नहीं है। सिर्फ एस्‍ट्रल ट्रैवलिंग हो सकती है। सही गंगा त्री  पर, सशरीर पहुंचना संभव नहीं है।

      जैसा मैंने कहा कि सूफियों का अल्‍कुफा है। इसमें सशरीर जा सकता है। इसलिए कभी कोई भूल-चूक से भी पहुंच सकता है। यानी चाहे कोई खोजने वाला न पहुंच सके, क्‍योंकि खोजने वाले को अप धोखा दे सकते है। गलत नक्‍शे पकड़ा सकते है। लेकिन जो खोजने नहीं निकला है, आकारण पहुंच जाए तो उसको आप धोखा नहीं दे सकते। वह पहुंच सकता है। लेकिन गंगो त्री पर पहुंचने के लिए सिर्फ सूक्ष्‍म शरीर में ही पहुंचा जा सकता है। इस शरीर में से नहीं पहुंचा जा सकता है। इस तरह का सारा इंतजाम है। गंगो त्री का दर्शन सशरीर कभी नहीं किया जा सकता,वह एस्‍ट्रल ट्रैवलिंग है।

      ध्‍यान में इस शरीर को यहीं छोड़कर यात्रा की जा सकती है। और जब कोई गंगो त्री को देख ले, एस्ट्रल ट्रैवलिंग में, तब उसको पता चले कि गंगा की पूजा का राज क्‍या है। इसलिए मैंने कहा कि सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्‍योंकि सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। जिस जगह से वह गंगा वह जगह बहुत ही विशिष्‍ट रूप से निर्मित है। और वहां से जो पानी प्रवाहित हो रहा है वह अल्केमिकली है। उस अल्केमिकली धारा के दोनों तरफ हिंदुओं ने अपने तीर्थ खड़े किए हे।

      आप यह जान कर हैरान होंगे कि हिंदुओं के सब तीर्थ नदी के किनारे है और जैनों के सब तीर्थ पहाड़ों पर है। जैन उस पहाड़ पर ही तीर्थ बनाएँगे जो बिलकुल रूखा हो जि पर हरियाली भी न हो, हरियाली वाले पहाड़ पर वह न चढ़ेंगे। हिमालय जैसा बढ़िया पहाड़ जैनों ने बिलकुल छोड़ दिया। अगर पहाड़ ही चुनना था तो हिमालय से बेहतर कुछ भी न था। पर हिमालय को बिलकुल छोड़ दिया। उन्‍हें सूखा पहाड़ा चाहिए, खुला पहाड़ चाहिए, कम से कम हरियाली हो कम से कम पानी हो। क्‍योंकि जैन जिस अल्‍केमी का प्रयोग कर रहे थे, वह अल्‍केमी शरीर के भीतर जो ‘’अग्नि तत्‍व’’ है। उससे संबंधित है। और हिंदू जो प्रयोग कर रहे थे वह अल्‍केमी के भीतर जो ‘’पानी तत्‍व’’ है, उससे संबंधित है। दोनों की अपनी कुंजियां है, और अलग है।

      हिंदू तो सोच ही नहीं सकता कि नदी के बिना कैसे तीर्थ हो सकता है। नदी के बिना तीर्थ होने का कोई अर्थ हिंदुओं की समझ में नहीं आता है। हरियाली और सौंदर्य और इस सबके बिना तीर्थ हो सकता है, उसकी समझ के बाहर की बात है। वह जिस तत्‍व पर काम कर रहा था। वह जल है। इसलिए उसके सब तीर्थ जल आधारित है, जल से निर्मित है।   

      जैन जो मेहनत कर रहा था उसका मूल तत्‍व अग्‍नि है। इसलिए तप पर बहुत जोर है। इधर हिंदू शास्‍त्र और हिंदू साधु का जोर बहुत भिन्‍न है। हिंदू साधना का सूत्र यह है कि संन्‍यासी को योगी को दूध, घी, दही, पनीर, इनकी पर्याप्‍त मात्रा का उपयोग करना चाहिए। ताकि भीतर आर्द्रता रहे—सूखापन न आ सके। भीतर सूखापन आ जायेगा तो उसकी ‘’की’’ काम नहीं कर सकेगी—वह आर्द्र रहे।

      जैन की सारी की सारी चेष्‍टा यह है कि भीतर सब सूख जाए, आर्द्रता रहे ही नहीं। इसलिए अगर जैन मुनि ने स्‍नान भी बंद कर दिया। जो उसके कारण है। उतना भी पानी का उपयोग नहीं करना। अब आज वह सिवाय गंदगी के कुछ नहीं दिखायी पड़ेगा। यह जैन मुनि भी नहीं बता सकता कि वह किस लिए नहीं नाह रहा है। काहे के लिए परेशान है वह बिना नाहये, या क्‍यों चोरी से स्‍पंज कर रहा है। लेकिन जल में उसकी ‘’की’’ नहीं है, उसकी कुंजी नहीं है।

      पंच महा भूतों में उनकी कुंजी है, वह है—तप, वह है—अग्‍नि। तो सब तरफ से भीतर अग्‍नि को जगाना है। उपर से पानी डाला तो उस अग्‍नि को जगना मुशिकल हो जाएगा। इसलिए सूखे पहाड़ पर जहां हरियाली नहीं पानी नहीं, जहां सब तप्‍त है, वहां जैन साधक खड़ा है। वह धीरे-धीरे पत्‍थरों में खड़ा रहेगा। जहां सब बाहर भी सूखा है।

      दुनिया में सब जगह उपवास है, लेकिन सिर्फ जैनों को छोड़कर उपवास में पानी लेने की मनाही कोई नहीं करेगा। सब दुनियां उपवास में सब चीजें बंद कर दो, पानी जारी रखो। सिर्फ जैन है, जो उपवास में पानी का भी निषेध करेंगे। पानी भी नहीं। साधारण गृहस्‍थ यही समझता हे कि रात्रि का पानी इसलिए त्‍याग करवाया जा रहा है कि पानी में कहीं कोई कीड़ा मकोड़ा न मिल जाए, कोई फलां न हो जाए। पर उससे कोई लेना-देना नहीं। असल में अग्नि तत्व की कुंजी के लिए तैयारी करवायी जा रही हे।

      और बड़े मजे कि बात हे। कि अगर पानी कम कर दिया जाए, अगर कम से कम न्‍यूनतम, जितना महावीर की चेष्‍टा है उतना पानी लिया जाए, तो ब्रह्मचर्य के लिए अनूठी सहायता मिलती हे। क्‍योंकि वीर्य सूखना शुरू हो जाता है। और अंतर-अग्‍नि के जलाने के , जो इसके संयुक्‍त प्रयोग है वह बिलकुल सुखा डालते है। जरा-सी भी आर्द्रता वीर्य को प्रवाहित करती है। यह उनकी कुंजी है। जैनों ने सारे के सारे अपने तीर्थों का र्निमार्ण नदियों से दूर किया है। फिर नकल में कुछ पीछे के तीर्थ खड़े कर लिए, उनका कोई प्रयोजन नहीं है। वह आथेंटिक नहीं है।

      जैन आथेंटिक तीर्थ पहाड़ पर होगा। हिंदू आथेंटिक तीर्थ नदी के किनारे होगा। हरियाली में होगा, सुंदर जगह होगा। जैन जो भी पहाड़ चुनें गे वह  कई हिसाब से कुरूप होगा। क्‍योंकि पहाड़ का सौंदर्य उसकी हरियाली के साथ खो जाता है। वे स्‍नान नहीं करेंगे, दातुन नहीं करेंगे। इतना कम पानी का उपयोग करना है कि दातुन भी नहीं करेंगे। अगर वह पूरी बात समझ ली जाए उनकी, तो फिर उनके जो सूत्र है वह कारगर होंगे, नहीं तो नहीं कारगर होंगे। उन सूत्रों की साधना से भीतर की अग्‍नि भड़कती है और भीतर की अग्‍नि के भड़काने का यह निगेटिव उपाय है कि पानी का संतुलन तोड़ दिया जाए।

      इन सारे तत्‍वों का भीतर ऐ बैलेंस है। इन मात्रा में भीतर पानी, इन मात्रा में अग्‍नि , इन से बैलेंस है। अगर आपको एक तत्‍व से यात्रा करनी है तो बैलेंस देना पड़ेगा और विपरीत से तोडना पड़ेगा। जो भी अग्‍नि पर मेहनत करेगा वह पानी का दुश्‍मन हो जाएगा। क्‍योंकि पानी जितना कम हो जाए उसके भीतर उतना उस अग्‍नि का संचार हो जाए।

      गंगा एक अल्‍केमिक प्रयोग है, एक बहुत गहरा रासायनिक प्रयोग है। इसमें स्‍नान करके व्‍यक्‍ति तीर्थ में प्रवेश करेगा। इसमे स्‍नान के साथ ही उसके शरीर के भीतर के पानी का जो तत्‍व है वह रूपांतरित होता है। वह रूपांतरण थोड़ी देर ही टिकेगा, लेकिन उस थोड़ी देर में अगर ठीक प्रयोग किए जाएं तो गति शुरू हो जाएगी। रूपांतरण तो थोड़ी देर में विदा हो जाएगा लेकिन गति शुरू हो जाएगी।  

      और ध्‍यान रहे जिसने एक बार गंगा के पानी को पीकर जीना शूर कर दिया वह फिर दूसरा पानी नहीं पी सकेगा। फिर बहुत कठिनाई हो जाएगी, क्‍योंकि दूसरा पानी फिर उसके लिए हजार तरह की अड़चनें पैदा करेगा। और भी बहुत जगह इस तरह गंगा जैसी गंगा पैदा करने की कोशिशें की गई लेकिन कोई भी सफल नहीं हुई। बहुत नदियों में प्रयोग किए है, वह सफल नहीं हो सके, क्‍योंकि पूरी कुंजियां खो गयी हे। लोगों को थोड़ा ख्‍याल होगा की क्‍या किया गया होगा। पर मैं नहीं जानता, कितने लोगों को ख्‍याल है। शायद ही दो चार आदमी हों, जिनको ख्‍याल हो कि अल्‍केमी का इतना बड़ा प्रयोग हो सकता हे।     

      गंगा में स्‍नान, तत्‍काल प्रार्थना या पूजा या मंदिर में प्रवेश, या तीर्थ में प्रवेश, यह पदार्थ का उपयोग है अंतर-यात्रा के लिए। तीर्थ में और सब तरह के पदार्थों का भी उपयोग है।

ओशो—(मैं कहता आंखन देखी)

(तीर्थ - 5) : और अल्‍केमी (Pilgrimage and Alchemy)

एक बौद्ध भिक्षु को सीलोन से किसी ने मेरे पास भेजा। उसकी तीन साल से नींद खो गई थी। तो उसकी जो हालत हो सकती थे वह हो गयी। पूरे वक्‍त हाथ पैर-कंपते रहेंगे, पसीना छूटता रहेगा और घबराहट होती रहेगी। एक कदम भी उठायेगा तो डरेगा, भरोसा अपने ऊपर का सब खो गया,नींद आती नहीं है। बिलकुल विक्षिप्‍त और अजीब सी हालत है। उसने बहुत इलाज करवाया क्‍योंकि वह.....वह यहां सब तरह के इलाज उसने करवा लिए, कुछ फायदा हुआ नहीं कोर्इ ट्रैंकोलाइजर उसको सुला नहीं सकता था। उसे गहरे से गहरे ट्रैंकोलाइजर दिए गए तो भी उसने कहा कि मैं बहार से सुस्‍त होकर पड़ जाता हू लेकिन भीतर तो मुझे पता चलता ही रहता है कि मैं जगा हुआ हूं।

            उसे किसी ने मेरे पास भेजा। मैंने उसको कहा कि तुम्‍हें कभी नींद आएगी नहीं, ट्रैंकोलाइजर से या और किसी उपाय से। तुम बुद्ध का अनापान सती योग तो नहीं कर रहे हो। क्‍योंकि बौद्ध भिक्षु के लिए वह अनिवार्य है। उसने कहा वह तो मैं कर ही रहा हूं। उसके बिना तो......मैं फिर मैंने कहा,  तुम नींद का ख्‍याल छोड़ दो।

      अनापान सती योग का प्रयोग ऐसा है कि नींद जाएगी। मगर वह प्राथमिक प्रयोग है। और जब नींद खो जाए तब दूसरा प्रयोग तत्‍काल जोड़ा जाना चाहिए। अगर उसको ही करते रहे तो पागल हो जाओगे, मुशिकल में पड़ जाओगे। वह सिर्फ प्राथमिक प्रयोग है वह सिर्फ नींद को हटाने के लिए। एक दफा भीतर से नींद हट जाए तो आपके भीतर इतना फर्क पड़ता है चेतना में कि उस क्षण को उपयोग करके आगे गति की जा सकती है।

      तो मैंने कहा—कोई दूसरी प्रक्रिया तुझ मालूम है, उसने कहां—मुझे दूसरी किसी न तो अनापान सती बतायी नहीं। बस अनापान सती किताब में लिखी हुए है। और सबको मालुम है। और खतरनाक है उसका किताब में लिखना, क्‍योंकि उसको करके कोई भी आदमी नींद से वंचित हो सकता है। और जब नींद से वंचित हो जाएगा। तो दुसरी प्रक्रिया का कोई पता नहीं हे।

      इसलिए सदा बहुत सी चीजें गुप्‍त रखी गयी है। गुप्‍त रखने का और कोई कारण नहीं था, किसी से छिपाने का कोई और कारण नहीं था। जिसको हम लाभ पहुंचाना चाहते है उनको नुकसान पहुंच जाए तो कोई अर्थ नहीं। तो वास्‍तविक तीर्थ छिपे हुए और गुप्‍त है। तीर्थ  छिपे हुए और गुप्‍त है। तीर्थ जरूर है, पर वास्‍तविक तीर्थ छिपे हुए, गुप्‍त है। करीब-करीब निकट है उन्हीं तीर्थों के, जहां आपके फाल्‍स तीर्थ खड़े हुए है। और जो फाल्‍स तीर्थ है, वह जो झूठे तीर्थ है, धोखा देने के लिए खड़े किए गए है। वह इसलिए खड़े किए गए है। ठीक पर की गलत आदमी ने पहुंच जाए। ठीक आदमी तो ठीक पहुंच ही जाता है। और हरेक तीर्थ की अपनी कुंजियों है।

      इसलिए अगर सूफियों का तीर्थ खोजना हो तो जैनियों के तीर्थ की कुंजी से नहीं खोजा जा सकता। अगर जैनियों का तीर्थ खोजना है तो सूफियों की कुंजियों हे, और उन कुंजियों का उपयोग करके तत्‍काल खोजा जा सकता है। तत्‍काल...नाम नहीं लेता, किंतु किसी के तीर्थ की एक कुंजी आपको बताता हूं।

      एक विशेष यंत्र जैसे कि तिब्‍बतियों के होते है, जिसमें खास तरह की आकृतियां बनी होती है—वे यंत्र कुंजियों है। जैसे हिंदुओं के पास भी यंत्र है। और हजार यंत्र है। आप घरों में भी शुभ लाभ बनाकर आंकडे लिखकर और यंत्र बनाते है। बिना जाने कि किस लिए बना रहे है। क्‍यों लिख रहे है यह, आपको खयाल भी नहीं हो सकता है कि आप अपने मकान में एक ऐसा यंत्र  बनाए हुए है जो किसी तीर्थ की कुंजी हो सकती है। मगर बाप दादे आपके बनाते रहते है और आप बनाए चले जा रहे है।

      एक विशेष आकृति पर ध्‍यान करने से आपकी चेतना विशेष आकृति लेती है। हर आकृति आपके भीतर चेतना को आकृति देती है। जैसे कि अगर आप बहुत देर तक खिड़की पर आँख लगाकर देखते रहें,फिर आँख बंद करें तो खिड़की का निगेटिव चौखटा आपकी आँख के भीतर बन जाता है—वह निगेटिव है। अगर किसी यंत्र पर आप ध्‍यान के बाद आपको भीतर निर्मित होते है। वह विशेष ध्‍यान के बाद आपको भीतर दिखायी पड़ना शुरू हो जाता है। और जब वह दिखाई  पड़ना शुरू हो जाए, तब विशेष आह्वान करने से तत्‍काल आपकी यात्रा शुरू हो जाती है।

      नसीरुद्दीन के जीवन में एक कहानी है। नसीरुद्दीन का गधा खो गया है। वह उसकी संपति है, सब कुछ। सारा गांव खोज डाला, सारे गांव के लोग खोज-खोजकर परेशान हो गए, कहीं कोई पता नहीं चला। फिर लोगों ने कहा ऐसा मालूम होता है कि किसी तीर्थ यात्रियों के साथ निकल रहे है, तीर्थ का महीना है। और गधा दिखाता है कि कहीं तीर्थ यात्रियों के साथ निकल गया, गांव में तो नहीं है। गांव के आस-पास भी नहीं है, सब जगह खोज डाला गया। नसीरुद्दीन से लोगों ने कहा, अब तुम माफ करो, समझो की खो गया,अब वह मिलेगा नहीं।

      नसीरुद्दीन ने कहा कि मैं आखिरी अपाय और कर लू। वह खड़ा हो गया, आँख उसने बंद कर ली। थोड़ी देर में वह झुक क्या चारों हाथ-पैर से, और उसने चलना शुरू कर दिया। और वह उस मकान का चक्‍कर लगाकर, और उस बग़ीचे का चक्‍कर लगाकर उस जगह पहुंच गया जहां एक खड्डे में उसका गधा गिर पडा था। लोगों ने कहा, नसीरुद्दीन हद कर दी तुम्‍हारी खोज ने, यह तरकीब क्‍या है। उसने कहा मैंने सोचा कि जब आदमी नहीं खोज सका, तो मतलब यह है कि गधे की कुंजी आदमी के पास नहीं है।

      मैंने सोचा कि मैं गधा बन जाऊँ। तो मैंने अपने मन में सिर्फ यह भावना की कि मैं गधा हो गया। अगर मैं गधा होता तो कहां जाता खोजने, गधे को खोजने कहां जाता। फिर कब मेरे हाथ झुककर जमीन पर लग गए, और कब मैं गधे की तरह चलने लगा। मुझे पता ही नहीं चला। कैसे मैं चलकर वहां पहुंच गया,वह मुझे पता नहीं। ।जब मैंने आँख खोली तो मैंने देखा, मेरा गधा खड्डे में पडा हुआ है।

      नसीरुद्दीन तो एक सूफी फकीर है। यह कहानी तो कोई भी पढ़ लेगा और मजाक समझकर छोड़ देगा। लेकिन इसमें एक कि है—इस छोटी सी कहानी में। इसमें की है खोज की। खोजने का एक ढंग वह भी है। और आत्‍मिक अर्थों में तो ढंग वही है। तो प्रत्‍येक तीर्थ की कुंजियां है। यंत्र है। और तीर्थों का पहला प्रयोजन तो यह है कि आपको उस आविष्‍ठधारा में खड़ा कर दें जहां धारा वह रही हो और आप उसमें वह जाएं—एक।

      दूसरी बात—मनुष्‍य के जीवन में जो भी है वह सब पदार्थ से निर्मित है, सिर्फ पदार्थ से निर्मित है—मनुष्‍य के जीवन में जो है। सिर्फ उसकी आंतरिक चेतना को छोड़कर। लेकिन आंतरिक चेतना का तो आपको कोई पता नहीं है। पता तो आपको सिर्फ शरीर का है, और शरीर के सारे संबंध पदार्थ से है। थोड़ी-सी अल्‍केमी समझ लें तो दूसरा तीर्थ का अर्थ ख्‍याल में आ जाए।

            अल्क मिस्ट की प्रक्रियाएं है, वह सब गहरी धर्म की प्रक्रियाएं हे। अब अल्क मिस्ट कहते है कि अगर पानी को एक बार बनाया जाए और फिर पानी बनाया जाए, फिर भाप बनाया जाए उसको, फिर पानी बनाया जाए—ऐसा एक हजार बार किया जाए तो उस पानी में विशेष गुण आ जाते है। जो साधारण पानी में नहीं है। इस बात को पहले मजाक समझा जात था। क्‍योंकि इससे क्‍या फर्क पड़ेगा, आप एक दफा पानी को डिस्टिल कर लें फिर दोबारा उस पानी को भाप बनाकर डिस्‍टिल्‍ड़ करलें। फिर तीसरी बार, फिर चौथी बार, क्‍या फर्क पड़ेगा। लेकिन पानी डिस्‍टिल्‍ड़ ही रहेगा। लेकिन अब विज्ञान ने स्‍वीकार किया है कि इसमें क्वालिटी बदलती है। अब विज्ञान ने स्‍वीकार किया कि वह एक हजार बार प्रयोग करने पर उस पानी में विशिष्‍टता आ जाती है। अब वह कहां से आती है अब तक साफ नहीं है।  लेकिन वह पानी विशेष हो जाता है। लाख बार भी उसको करने के प्रयोग है और तब वह और विशेष हो जाता है। अब आदमी के शरीर में हैरान होंगे जानकर आप, कि पचहत्‍तर प्रतिशत पानी हे। थोड़ा बहुत नहीं पचहत्तर प्रतिशत,और जो पानी  है उस पानी को कैमिकल ढंग वहीं है। जो समुद्र के पानी का है। इस लिए नमक के बिना आप मुश्‍किल में पड़ जाते हे।

      आपके शरीर के भीतर जो पानी है उसमें नमक की मात्रा उतनी ही होनी चाहिए जितनी समुद्र के पानी में है। अगर इस पानी की व्‍यवस्‍था को भीतर बदला जा सके तो आपकी चेतना की व्‍यवस्‍था को बदलने में सुविधा होती है। तो लाख बार डिस्टिल्ड़ किया हुआ पानी अगर पिलाया जा सके तो आपके भीतर बहुत सी वृतियों में एकदम परिर्वतन होगा। अब यह अल्क मिस्ट हजारों प्रयोग ऐसे कर रहे थे। अब एक लाख दफा पानी को डिस्टिल्ड़ करने में सालों लग जाते है।  और एक आदमी चौबीस घंटे यही काम कर रहा था।

      इसके दोहरे परिणाम होते है। एक तो उस आदमी का चंचल मन ठहर जाता था। क्‍योंकि यह ऐसा काम था। जिसमें चंचल होने का उपाय नहीं था। रोज सुबह से सांझ तक वह यही कर रहा था। थक कर मर जाता था। और दिन भर उसने किया क्‍या, हाथ में कुल इतना है कि पानी को उसने पच्‍चीस दफा डिस्टिल्ड़ कर लिया। वर्षों बीत जाते,वह आदमी पानी ही डिस्टिल्ड़ करता रहता। हमें सोचने में कठिनाई होगी, पहले थोड़े दिन में हम ऊब जाएंगे, ऊबेंगे तो हम बंद कर देंगे। यह मजे की बात है जब जहां भी ऊब आ जाए वहीं टर्निंग प्वाइंट होता है। अगर आपने बंद कर दिया तो आप अपनी पुरानी स्‍थिति में लौट जाते है। और अगर जारी रखा तो आप नयी चेतना को जनम दे लेते हे।......क्रमश:  अगले अंक में।

मैं कहता आंखन देखी--ओशो

(तीर्थ - 4): अल्‍कुफा एक रहस्‍य

तीर्थ शब्‍द का अर्थ होता है—घाट। उसका अर्थ होता है, ऐसी जगह जहां से हम उस अनंत सागर में उतर सकते है। जैनों का शब्‍द तीर्थकर तीर्थ से बना है, उसका अर्थ है तीर्थ को बनानेवाला। असल में उस को ही तीर्थ कहां जा सकता है। तीर्थकर कहा जा सकता है जिसने ऐसा तीर्थ निर्मित किया हो जहां साधारण जन खड़े होते, पाल खोलते, ऐसे ही यात्रा पर संलग्न  हो जाए। अवतार न कहकर तीर्थकर कहा, और अवतार से बड़ी घटना तीर्थ कर है। क्‍योंकि परमात्‍मा, आदमी में अवतरित हो यह तो एक बात है लेकिन आदमी परमात्‍मा में प्रवेश का तीर्थ बना ले, यह और भी बड़ी बात हे।

    जैन, परमात्‍मा में भरोसा करनेवाला धर्म नहीं है, आदमी की सामर्थ्‍य में भरोसा करनेवाला धर्म हे। इसलिए तीर्थ और तीर्थकर का जितना गहरा उपयोग जैन कर पाए उतना कोई भी नहीं कर पाया। क्‍योंकि यहां तो कोई ईश्‍वर की कृपा पर उनको ख्‍याल नहीं है। ईश्‍वर कोई सहारा दे सकता है। इसका कोई ख्‍याल नहीं है। आदमी अकेला है, और आदमी को अपनी ही मेहनत से यात्रा करनी है।

      लेकिन दो रास्‍ते हो सकते है। एक-एक आदमी अपनी मेहनत करे। पर तब शायद कभी करोड़ो में एक आदमी उपलब्‍ध हो पाएगा। लेकिन हवाओं का सहारा लेकर यात्रा बड़ी आसान होती है। तो क्‍या अध्यात्मिक हवाएँ संभव है। उसपर ही तीर्थ का सब कुछ निर्भर है। क्‍या यह संभव है कि जब महावीर जैसा एक व्‍यक्‍ति खड़ा होता है तो उसके आप-पास किसी अनजाने आयाम में कोई प्रवाह शुरू होता है। क्‍या यह किसी एक ऐसी दिशा में बहाव को निर्मित करता है कि बहाव में कोई पड़ जाए तो बह जाए,  वही बहाव तीर्थ है।    

      इस पृथ्‍वी पर तो उसके जो निशान है वह भौतिक निशान है, लेकिन वे स्‍थान न खो जाए इसलिए उन भौतिक निशानों की बड़ी सुरक्षा की गयी है। मंदिर बनाए गए है उन जगहों पर, या पैरों के चिन्‍ह बनाए गए है उन जगहों पर यह मूर्तियां खड़ी की गई है उन जगहों पर और उन जगह को हजारों वर्षो तक वैसा का वैसा रखने की चेष्टा की गयी है। इंच भर भी वह जगह न हिल जाए, जहां घटना घटी है कभी बड़े-बड़े खज़ाने गडाए गए है आज भी उनकी खोज चलती है।

      जैसे की रूस के आखिरी जार का खजाना अमरीका में कहीं गड़ा है। जो कि पृथ्‍वी का सबसे बड़ा खजाना है, और आज भी खोज चलती है। वह खजाना है, यह पक्‍का है, क्‍योंकि बहुत दिन नहीं हुए.....अभी उन्‍नीस सौ सत्रह को घटे बहुत दिन नहीं हुए। उसका इंच-इंच हिसाब भी रखा गया है कि यह कहां होगा। लेकिन डि कोड नहीं हो पा रहा है। वह जो हिसाब रखा गया है उसको समझा नहीं जा पा रहा है कि एक्‍जैक्‍ट जगह कहां है।

      जैसे कि ग्‍वालियर में एक बड़ा खजाना ग्‍वालियर फेमिली का है। जिसका फेमिली के पास सारा का सारा हिसाब है, लेकिन फिर भी जगह नहीं पकड़ी जा रही है कि वह जगह कहां है। वह डि कोड नहीं हो रहा है। नक्‍शा जो है—इस तरह से सब नक्‍शे गुप्‍त भाषा में ही निर्मित किए जाते हे। अन्‍यथा कोई भी डि कोड कर लेगा। समान्य भाषा में वे नहीं लिखे जाते।

      इन तीर्थों की भी पूरा का पूरा सूचन है। इसलिए जरूरी है जैसा कि आम लोग समझ लेते है। और वह आम गड़बड़ न कर पाएँ इसलिए बड़े उपाय किए जाते है। वह मैं आपको कहूं तो बहुत हैरानी होगी। जैसे जहां आप जाते है ओर आपसे कहा जाता है कि यह जगह है जहां महावीर निर्वाण को उपलब्‍ध हुए—बहुत संभावना तो यह है कि वह जगह नहीं होंगी। उससे थोड़ी हटकर वह जगह होगी जहां उनका निर्वाण हुआ। उस जगह पर तो प्रवेश उनको ही मिल सकेगा, जो सच में ही पात्र है और उस यात्रा पर निकल सकते है। एक फाल्‍स जगह, एक झूठी जगह आम आदमी से बचाने की  लिए खड़ी की जाएगी। जिसपर तीर्थयात्री जाता रहेगा। नमस्‍कार करता रहेगा और लौटता रहेगा। वह जगह तो उनको ही बतायी जाएगी जो सचमुच उस जगह आ गए है।  जहां से वह सहायता लेने के योग्‍य है या उनको सहायता मिलनी चाहिए। ऐसी बहुत सी जगह है।

      अरब में एक गांव है जिसमें आज तक किसी सभ्‍य आदमी को प्रवेश नहीं मिल सका—आज तक अभी भी। चाँद पर आप प्रवेश कर गए लेकिन छोटे से गांव अल्‍कुफा में आज तक किसी यात्री को प्रवेश नहीं मिल सका। सच तो यह है कि आज तक यह ठीक हो सका नहीं कि वह कहां है। और वह गांव है। इसमें कोई शक-शुबहा नहीं, क्‍योंकि हजारों साल से इतिहास उसकी खबर देता है। किताबें उसकी खबर देती है। उसके नक्‍शे है।

      वह गांव कुछ बहुत प्रयोजन से छिपाकर रखा गया है। और सूफियों में जब कोई बहुत गहरी अवस्‍था में होता है तभी उसको उस गांव में प्रवेश मिलता है। उसकी सीक्रेट कि है। अल्‍कुफा के गांव में उसी सूफी को प्रवेश मिलता है जो ध्‍यान में उसका रास्‍ता खोज लेता है। अन्‍यथा नहीं। उसकी की हे फिर तो उसे कोई रोक भी नहीं सकता। अन्‍यथा कोई उपाय नहीं है। नक्‍शे है, सब तैयार है, लेकिन फिर भी उसका पता नहीं लगता वह कहां हे। वह सब एक अर्थ में नक्‍शे थोड़े से झूठ है ओर भटकाने के लिए है। उन नक़्शों को जो मानकर चलेगा वह अल्‍कुफा कभी नहीं पहुंच पाएगा।

      इसलिए बहुत यात्री यूरोप के पिछले तीन सौ वर्षों में सैकड़ों यात्री अल्‍कुफा को ढूंढने गए है। उनमें से कुछ तो कभी लौटें नहीं मर गय। जो लौटे वे कभी कहीं पहुंचे नहीं। वे सिर्फ चक्‍कर मारकर वापस आ गए। सब तरह से कोशिश की जा चुकी है। पर उसकी कुंजी है। और वह कुंजी एक विशेष ध्‍यान है; और उस विशेष ध्‍यान में ही अल्‍कुफा पूरा का पूरा प्रगट होता है। और वह सूफी उठता है और चल पड़ता है। और जब इतनी योग्‍यता हो तभी उस गांव से गति है। वह एक सीक्रेट तीर्थ है जो इसलाम से बहुत पुराना है। लेकिन उसको गुप्‍त रखा गया है। इन तीर्थों में भी जो जाहिर है। इन तीर्थों में भी जो जाहिर दिखाई पड़ते है, वे असली तीर्थ नहीं है। आस पास असली तीर्थ है।  

      जैसे एक मजेदार घटना घटी। विश्वनाथ के मंदिर में काशी  में जब विनोबा  हरि जनों को लेकर प्रवेश कर गए, तो कर पात्री ने कहा कि कोई हर्ज नहीं, हम दूसरा मंदिर बना लेंगे, और दूसरा मंदिर बनाना  शुरू कर दिया। वह मंदिर तो बेकर हो गया। तो दूसरा मंदिर बनाना शुरू कर दिया। साधारणत: देखने में विनोबा ज्‍यादा समझदार आदमी मालूम पड़ते है कर पात्री से। असलियत ऐसी नहीं है। साधारण देखने में कर पात्री निपट पुराणपंथी, नासमझ, आधुनिक जगत और ज्ञान से वंचित मालूम पड़ते है। यह थोड़ी दूर तक सच है बात। लेकिन फिर भी जिस गहरी बात की वह ताईद कर रहे है उसके मामले में वह ज्‍यादा जानकार है।

      सच बात यह है कि विश्वनाथ का मंदिर भी असली नहीं है। और वह जो दूसरा बनाएँगे वह भी असली नहीं होगा। असली मंदिर तो तीसरा है। लेकिन उसकी जानकारी सीधी नहीं दी जा सकती। और असली मंदिर को छिपाकर रखना पड़ेगा, नहीं तो कभी भी कोई भी धर्म सुधारक उसको भ्रष्‍ट कर सकता है। अभी जो विश्वनाथ का मंदिर है खड़ा हुआ, इसको तो नष्‍ट किया जा चुका है। इसमें कोई उपाय नहीं है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है चाहे नष्‍ट कर दो।

      वह जो दूसरा बनाया जा रहा है वह भी फाल्‍स है। लेकिन एक फाल्स बनाए ही रखना पड़ेगा, ताकि असली पर नजर न जाए। और असली को छिपाकर रखना पड़ेगा। विश्वनाथ के मंदिर में प्रवेश की कुंजियों है, जैसे अल्‍कुफा में प्रवेश की कुंजियों है। उसमें कभी कोई सौभाग्‍यशाली संन्‍यासी प्रवेश पाता है। उसमें कोई ग्रह स्थ कभी प्रवेश नहीं पाया और कभी पा नहीं सकता। सभी संन्‍यासी को भी उसमें प्रवेश नहीं मिल पाते है कभी कोई सौभाग्‍यशाली संन्‍यासी उसमें प्रवेश पाते है। और उसे सब भांति छिपाकर रखा जाएगा। उसके मंत्र है और जिनके प्रयोग से उसका द्वार खोलेगा, नहीं तो उसका द्वार नहीं खुले गा। उसका बोध ही नहीं होगा,उसका ख्‍याल ही नहीं आएगा।

      काशी में जाकर इस मंदिर की लोग पूजा, प्रार्थना करके वापस लौट आएंगे। मगर इस मंदिर की भी अपनी एक सेंक्‍टिंटी बन गया थी। यह झूठा था, लेकिन फिर भी लाखों वर्षों से उसको सच्‍चा मानकर चला जा रहा था। उसमें भी एक तरह की पवित्रता आ गयी।

      सारे धर्मों ने कोशिश की है कि उनके मंदिर में या उनके तीर्थ में दूसरे धर्म का व्‍यक्‍ति प्रवेश न करे। आज हमें बेहूदगी लगती है यह बात। हम कहेंगे इससे क्‍या मतलब है। लेकिन जिन्‍होंने व्‍यवस्‍था की थी उनके कुछ करण थे। यह करीब-करीब मामला ऐसा ही है जैसे कि ऐटमिक एनर्जी की एक लेबोरेटरी है और अगर यह लिखा हो कि यहां सिवाय ऐटमिक साइंटिस्‍ट के कोई प्रवेश नहीं करेगा। तो हमें कोई कठिनाई नहीं होगी। हम कहेंगे, बिलकुल ठीक है, बिलकुल दुरुस्त है। खतरे से खाली नहीं है दूसरे आदमी का भीतर प्रवेश करना।

      लेकिन यही बात हम मंदिर और तीर्थ के संबंध में मानने को राज़ी नहीं है। क्‍योंकि हमें यह ख्‍याल ही नहीं है कि मंदिर और तीर्थ की अपनी साइंस है। और वह विशेष लोगों के प्रवेश के लिए है। आज भी एक मरीज बीमार पडा  है और उसके चारों तरफ डाक्‍टर खड़े होकर बात करते रहते है। मरीज सुनता है, समझ तो कुछ नहीं आता। क्‍योंकि वह किसी खास कोड लेंग्‍वेज में बात करते है। वह लैटिन या ग्रीक शब्‍दों को उपयोग कर रहे है। यह मरीज के हित में नही है कि उस समझे। इसलिए सारे धर्मों ने अपनी कोड़ लेंग्‍वेज विकसित की थी। उसके गुप्‍त तीर्थ थे, उसकी गुप्‍त भाषाएँ थीं। उसके गुप्‍त शास्‍त्र थे।  और आज भी जिनको हम तीर्थ समझ रहे है उनमें बहुत कम संभावना है सही होने की। जिनको हम शास्‍त्र समझ रहे है। उनमें बहुत कम संभावना है सही होने की।

      वह जो सीक्रेट ट्रैडीशनल है, उसे तो छिपाने की निरंतर कोशिश की जाती है। क्‍योंकि जैसे ही वह आम आदमी के हाथ में पड़ती है, उसके विकृत हो जाने का डर है। और आन आदमी उससे परेशान ही होगा, लाभ नहीं उठा सकता। जैसे अगर सूफियों के गांव अल्‍कुफा में अचानक आपको प्रवेश करवा दिया जाए तो पागल हो जाएंगे। अल्‍कुफा की यह परंपरा है कि वहां अगर कोई आदमी आकस्‍मिक प्रवेश कर जाए तो पागल होकर लौटे गा—वह लौटे गा ही, इसमें किसी को कोई कसूर नहीं हे।

      क्‍योंकि अल्‍कुफा इस तरह की पूरी के पूरे मनस तरंगों से निर्मित है कि आपका मन उसको झेल नहीं पाएगा। आप विक्षिप्‍त हो जाएंगे। उतनी सामथ्‍र्य और पात्रता के बिना उचित नहीं है। कि वहां प्रवेश हो। जैसे अल्‍कुफा के बाबत कुछ बातें ख्‍याल में ले लें तो और तीर्थों का ख्‍याल में आ जाएगा।

      जैसे अल्‍कुफा में नींद असंभव है, कोई आदमी सो नहीं सकता। तो आप पागल हो ही जाएंगे जब तक कि आपने जागरण का गहन प्रयोग न किया हो। इसलिए सूफी फकीर की सबसे बड़ी जो साधना है वह रात्रि जागरण है, रातभर जागते रहेंगे। और एक सीमा के बाद ....एक बहुत सोचने जैसी बात है—एक आदमी नब्‍बे दिन तक खाना न खाए तो भी सिर्फ दुर्बल होगा, मर नहीं जाएगा, पागल नहीं हो जाएगा।

      साधारण स्‍वस्‍थ आदमी आसानी से नब्‍बे दिन, बिना खाए रह सकता है। लेकिन साधारण स्‍वस्‍थ आदमी इक्‍कीस दिन भी बिना सोए नहीं रह सकता। ती महीने बिना खाए रह सकता है। तीन सप्‍ताह बिना सोए नहीं रह सकता। ती सप्‍ताह तो बहुत ज्‍यादा कह रहा हूं, एक सप्‍ताह भी बिना सोए रहना कठिन मामला है। पर अल्‍कुफा में नींद असंभव है। क्रमश: अगले अंक में......

मैं कहता हूं आंखन देखी - ओशो

(तीर्थ -3): सम्माद शिखर


तीर्थों को बनाने का एक तो प्रयोजन यह था कि हम इस तरह से चार्जड़, ऊर्जा से भरे हुए स्‍थल पैदा कर लें जहां से कोई भी व्‍यक्‍ति सुगमता से यात्रा कर सके। करीब-करीब वैसे ही है जैसे—एक तो होता है कि हम नाव में पतवार लगाकर और नाव को खै वें। दूसरा यह होता है कि हम पतवार को चलाएँ ही न, नाव के पाल खोल दे और उचित समय पर, और उचित समय और उचित हवा की दिशा में नाव को बहने दें। तीर्थ वैसी जगह थी, जहां से कि चेतना की एक धारा अपने आप प्रवाहित हो रही हो। जिसको प्रवाहित करने के लिए सदियों से मेहनत कि गई हो। आप सिर्फ उस धारा में खड़े हो जाएं और आपकी चेतना का पाल तन जाए और आप एक यात्रा पर निकल जाएं। जितनी मेहनत आपको अकेले में करनी पड़े उससे बहुत अल्‍प मेहनत में यात्रा संभव हो सकती है। 

      विपरीत स्‍थल पर खड़े होकर यात्रा अत्‍यंत कठिन भी हो सकती है। हवाएँ जब उल्‍टी तरफ बह रही हो और आप पाल खोल दें, तो बजाय इसके कि आप पहुंचे ओर भटक जाएं, इसकी पूरी संभावना है।

      अब जैसे अगर आप किसी ऐसी जगह में ध्‍यान कर रहे है जहां चारों और नकारात्‍मक भावावेश प्रवाहित होते है। निगेटिव इमोंशंस प्रवाहित होते है। समझ लें कि आप एक जगह बैठ कर ध्‍यान कर रहे है। और आपके चारों आरे हत्‍यारे बैठे हुए है। तो आपको कल्‍पना भी नहीं हो सकती कि ध्‍यान करने के क्षण में आप इतने रिसेप्‍टिव हो जाते है कि आस-पास जो भी हो रहा है वह तत्‍काल आप में प्रवेश कर जाता है। ध्‍यान एक रिसेप्‍टिविटि है, एक ग्राहकता है। ध्‍यान में आप वलन्‍रेबल हो जाते है, खुल जाते है और कोई भी चीज आप में प्रवेश कर सकती हे।

      इसलिए ध्‍यान के संग में आस-पास कैसी तरंगें है, चेतना की,विचार की ये देखना बहुत उपयोगी है। अगर ऐसी तरंगें आपके चारों और है जो कि आपको गलत तरफ झुका सकती है। तो ध्‍यान महंगा भी पड़ सकता है। और यह फिर ध्‍यान एक जद्दोजहद और एक संघर्ष बन जाएगा। जब कभी ध्‍यान में आपको अचानक ऐसे ख्‍याल आने लगते है जो कि आपको कभी भी नहीं आये थे, जब ध्‍यान के क्षण में आपको एक क्षण भी शांत होना मुश्किल होने लगता है कि इससे ज्‍यादा शांत तो आप बिना ध्‍यान के ही रहते थे। और कभी आपको ऐसा लगता है। तो आपको कभी ख्‍याल न आया होगा कि ध्‍यान के क्षण में आस-पास जो भी प्रवाहित होता है वह आप में सुगमता से प्रवेश पा जाता है।

      कारागृह में भी बैठकर भी ध्‍यान किया जा सकता है। पर बड़ा सबल व्‍यक्‍तित्‍व चाहिए। और कारागृह में बैठकर ध्‍यान करना हो तो प्रतिक्रियाएँ भिन्‍न चाहिए। ऐसी प्रक्रियाएं चाहिए जो पहले आपके चारों तरफ अवरोध की एक सीमा रेखा निर्मित कर दें, जिसके भीतर कुछ प्रवेश न कर सके। पर तीर्थ में वैसे अवरोध की कोई जरूरत नहीं है। तीर्थ में ऐसी ध्‍यान की प्रक्रिया चाहिए जो आपके आस-पास का सब अवरोध सब रेसिस्‍टेंस सब द्वार-दरवाजे खुले छोड़ दे। हवाएँ वहां बह रहीं है।

      सैकड़ों लोगों ने उस जगह से अनंत में प्रवाहित होकर एक मार्ग निर्मित किया है। ठीक मार्ग ही कहना चाहिए जैसे कि हम रास्‍ते बनाते है। सड़को पर एक जंगल में हम एक रास्‍ता बना देते है। दरख़्त गिरा देते है और एक पक्‍का रास्‍ता बना लेते है। और दूसरे पीछे चलनेवाला यात्री को बड़ी सुगमता हो जाए। ठीक आत्‍मिक अर्थों में भी इस तरह के रास्‍ते निर्मित करने की कोशिश की गयी है। कमजोर आदमियों को जिस तरह भी सहायता पहुँचाई जा सके उस तरह की सहायता, जो शक्‍तिशाली थे, उनहोंने सदा पहुंचने की कोशिश की। तीर्थ उनमें एक बहुत बड़ा प्रयोग है।.

      पहला तो तीर्थ का प्रयोजन यह है कि आपको जहां हवाएँ शरीर से आत्‍मा की तरफ बह ही रही है, जहां पूरा तर गायित  है वायुमंडल जहां से लोग ऊर्ध्‍वगामी हुए, जहां बैठकर लोग समाधिस्‍थ हुए, जहां बैठकर लोगों ने परमात्‍मा का दर्शन पाया जहां यह अनूठी घटना घटती रही है, सैकड़ों वर्षों तक वह जगह एक विशेष आविष्ट जगह हो जाती हे। उस आविष्ट जगह में आप अपने पाल को भर खुला छोड़ दें, कुछ और न करें तो भी आपकी यात्रा शुरू होगी। तो तीर्थ का पहला प्रयोग तो यह था।

      इसलिए सभी धर्मों ने तीर्थ निर्मित किए। उन धर्मों ने भी तीर्थ निर्मित किए जो मंदिर के पक्ष में नहीं थे। यह बड़े मजे की बात है। कि मंदिर के पक्ष में कोई तीर्थ निर्मित करे धर्म, समझ में आता है। लेकिन जो धर्म मंदिर के पक्ष में न थे। जो धर्म मूर्ति के विरोधी थे। उनको भी तीर्थ निर्मित करना ही पडा। मूर्ति का विरोध आसान हुआ, मूर्ति हटा दी यह भी कठिन न हुआ, लेकिन  तीर्थ को हटाया नहीं जा सका। क्‍योंकि तीर्थ का और भी व्‍यापक उपयोग था जिसको कोई धर्म इनकार न कर सका।

      जैसे कि जैन भी मूलत: मूर्तिपूजक नहीं है। मुसलमान मूर्तिपूजक नहीं है। सिक्‍ख मूर्तिपूजक नहीं है—बुद्ध मूर्तिपूजक नहीं थे प्रांरभ में—लेकिन इन सबने भी तीर्थ निर्मित किए है। तीर्थ निर्मित करने ही पड़े। सच तो यह है कि बिना तीर्थ के धर्म का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। ठीक है.....बिना तीर्थ के धर्म का कोई अर्थ न कोई प्रयोजन ही रह जाता है। फिर एक-एक व्‍यक्‍ति जो करना चाहे या जो कर सकता है करे। लेकिन फिर समूह में खड़े होने का कोई प्रयोजन, कोई अर्थवत्‍ता नहीं है।....क्रमश: अगले अंक में

ओशो---(मैं कहता आंखन देखी)

(तीर्थ-2): काबा








      मुसलमानों का तीर्थ है—काबा। काबा में मुहम्‍मद के वक्‍त तक तीन सौ पैंसठ मूर्तियां थी। और हर दिन की एक अलग मूर्ति थी। वह तीन सौ पैंसठ मूर्तियां हटा दी गयी, फेंक दी गई। लेकिन जो केंद्रीय पत्‍थर था मूर्तियों का, जो मंदिर को केंद्र था, वह नहीं हटाया गया। तो काबा मुसलमानों से बहुत ज्‍यादा पुरानी जगह है।  मुसलमानों की तो उम्र बहुत लंबी नहीं है.....चौदह सौ वर्ष।

      लेकिन काबा लाखों वर्ष पुराना पत्‍थर है। और भी  दूसरे एक मजे की बात है कि वह पत्‍थर जमीन का नहीं है। वह पत्‍थर जमीन का पत्‍थर नहीं है। अब तक तो विज्ञानिक.... क्‍योंकि इसके सिवाय कोई उपाय नहीं था। वह जमीन का पत्‍थर नहीं है। यह तो तय है। एक ही उपाय था हमारे पास कि वह उल्‍कापात में गिरा हुआ पत्‍थर है। जो पत्‍थर जमीन पर गिरते है। वह थोड़े पत्‍थर नहीं गिरते। रोज दस हजार पत्‍थर जमीन पर गिरते है। चौबीस घंटे में। जो आपको रात तारे गिरते हुए दिखाई पड़ते है वह तारे नहीं होते वह उल्का है, पत्‍थर है जो जमीन पर गिरते है। लेकिन जोर से धर्षण खाकर हवा का वे जल उठते है।  अधिकतर तो बीच में ही राख हो जाते है। कोई-कोई जमीन तक पहुंच जाते है। कभी-कभी जमीन पर बहुत बड़े पत्‍थर पहुंच जाते है। उन पत्‍थरों की बनावट ओ निर्मिति सारी भिन्‍न होती है।

      यह जो काबा का पत्‍थर है, यह जमीन का पत्‍थर नहीं है। तो सीधा व्‍याख्‍या तो यह है कि यह उल्‍का पात में गिरा होगा। लेकिन जो और गहरे जानते है। उनका मानना है, वह उल्‍कापात में गिरा पत्‍थर नहीं है। जैसे हम आज जाकर चाँद पर जमीन के चिन्‍ह छोड़ आए है—समझ लें कि एक लाख साल बाद यह पृथ्‍वी नष्‍ट हो चुकी हो, इसकी आबादी खो चुकी हो, कोई आश्चर्य नहीं है।  कल अगर तीसरा महायुद्ध हो जाए तो यह पृथ्‍वी सूनी हो जाए, पर चाँद पर जो हम चिन्‍ह छोड़ आए है, हमारे अंतरिक्ष यात्री चाँद पर जो वस्तुएँ छोड़ आए है वे वहीं बनी रहेंगी, सुरक्षित रहेंगी। उन्‍हें बनाया भी इस ढंग से गया है कि लाखों वर्षो तक सुरक्षित रह सकें।

      अगर कभी कोई चाँद पर कोई भी जीवन विकसित हुआ, या किसी और ग्रह से चाँद पर पहुंचा, और वह चीजें मिलेंगी, तो उनके लिए भी कठिनाई होगी कि वे कहां से आयी है? उनके लिए भी कठिनाई होगी। काबा का जो पत्‍थर है वह सिर्फ उल्‍कापात में गिरा हुआ पत्‍थर नहीं है। वह पत्‍थर पृथ्‍वी पर किन्‍हीं और ग्रहों के यात्रियों द्वारा छोड़ा गया पत्‍थर है। और उस पत्‍थर के माध्‍यम से उस ग्रह के यात्रियों से संबंध स्‍थापित किए जा सकते थे। लेकिन पीछे सिर्फ उसकी पूजा रह गयी। उसका पूरा विज्ञान खो गया; क्‍योंकि उससे संबंध के सब सूत्र खो गए।

      वह अगर किसी ग्रह पर गिर जाए तो उस ग्रह के यात्री भी क्‍या करेंगें? अगर उनके पास इतनी वैज्ञानिक उपलब्‍धि हो कि उसके रेडियो को ठीक कर सकें,तो हमसे संबंध स्‍थापित हो सकता है। अन्‍यथा उसको तोड़-फोड़ करके वह उनके पास अगर कोई म्यूजियम होगा तो उसमें रख लेंगे और किसी तरह की व्‍याख्‍या करेंगे कि वह क्‍या है। और रेडियो तक उनका विकास हुआ हो तो वह भयभीत हो सकते है उससे डर सकते है। अभिभूत हो सकते है, आशर्चय चकित हो सकते है। पूजा कर सकते है।

      काबा का पत्‍थर उन छोटे से उपकरणों में से एक है जो कभी दूसरे अंतरिक्ष के यात्रियों ने छोड़ा और जिनसे कभी संबंध स्थापित हो सकते थे। ये में उदाहरण के लिए कह रहा हूं आपको, क्‍योंकि तीर्थ हमारी ऐसी व्‍यवस्‍थाएं है। जिससे हम अंतरिक्ष के जीवन से संबंध स्‍थापित नहीं करते बल्‍कि इस पृथ्‍वी पर ही जो चेतनाएं विकसित होकर विदा हो गयीं, उनसे पुन:-पुन: संबंध स्‍थापित कर सकते है।   

      और इस संभावनाओं को बढ़ाने के लिए जैसे कि सम्‍मेत शिखर पर बहुत गहरा प्रयोग हुआ—बाईस तीर्थ करों का  सम्‍मेत शिखर पर जाकर समाधि लेना, गहरा प्रयोग था। वह इस चेष्‍टा में था कि उस स्‍थल पर इतनी सघनता हो जाए कि संबंध स्‍थापित करने आसान हो जाएं। उस स्‍थान से इतनी चेतनाएं यात्रा करें दूसरे लोक में, कि उस स्‍थान और दूसरे लोक के बीच सुनिश्चित मार्ग बन जाएं। वह सुनिश्चित मार्ग रहा है।

      और जैसे जमीन पर सब जगह एक सी वर्षा नहीं होती, घनी वर्षा के स्‍थल है, विरल वर्षा के स्‍थल है। रेगिस्‍तान है जहां कोई वर्षा नहीं होती, और ऐसे स्‍थान है जहां पाँच सौ इंच वर्षा होती है। ऐसी जगह है जहां ठंडा है सब और बर्फ के सिवाए कुछ भी नहीं है, और ऐसे स्‍थान है जहां सब गर्म हे। और बर्फ भी नहीं बन सकती।

      ठीक वैसे ही पृथ्‍वी पर चेतना की डैंसिटी और नान-डेंसिटी के स्‍थल है। और उनको बनाने की कोशिश की गई हे। उनको निर्मित करने की कोशिश कि गई हे। क्‍योंकि वह अपने आप निर्मित नहीं होंगे,वह मनुष्‍य की चेतना से निर्मित होंगे। जैसे सम्‍मेत शिखर पर बाईस तीर्थ करों का यात्रा करके, समाधि में प्रवेश करना, और उसी एक जगह से शरीर को छोड़ना, उस जगह पर इतनी घनी चेतना को प्रयोग है कि वह जगह चार्ज ड हो जाएगी विशेष अर्थों में।  और वहां कोई भी बैठे उस जगह पर और उन विशेष मंत्रों का प्रयोग करे जिन मंत्रों को उन बाईस लोगों ने किया है तो तत्‍काल उसकी चेतना शरीर को छोड़कर यात्रा करनी शुरू कर देगी। वह प्रक्रिया वैसी ही विज्ञान की है जैसी कि और विज्ञान की सारी प्र क्रियाएं है।......अगले भाग में क्रमश:........

--ओशो ( मैं कहता हूं आंखन देखी)

(तीर्थ-1) : परम की गुह्य यात्रा



प्रशांत महासागर में एक छोटे से द्वीप पर, ईस्‍टर आईलैंड में एक हजार विशाल मूर्तियां है। जिनमें कोई भी मूर्ति बीस फीट से छोटी नहीं है। और निवासियों की कुल संख्‍या दो सौ है। एक हजार, बीस फीट से भी बड़ी विशाल मूर्तियां है। जब पहली दफा इस छोटे से द्वीप का पता चला तो बड़ी कठिनाई हुई। कठिनाई यह हुई कि इतने थोड़े से लोगों के लिए...ओर ऐसा भी नहीं है कि कभी उस द्वीप की आबादी इससे ज्‍यादा रही हो। क्‍योंकि उस द्वीप की सामर्थ्‍य ही नहीं है इससे ज्‍यादा लोगों के लिए जो भी पैदावार हो सकती है वह इससे ज्‍यादा लोगों को पाल भी नहीं सकती। जहां दो सौ लोग रह सकते हों, वहां एक हजार मूर्तियां विशाल पत्‍थर की खोदने का प्रयोजन नहीं मालूम पड़ता। एक आदमी के पीछे पाँच मूर्तियां हो गयीं। और इतनी बड़ी मूर्तियां ये दो सौ लोग खोदना भी चाहें तो नहीं खोद सकते है। इतना महंगा काम ये गरीब आदिवासी करना भी चाहें तो भी नहीं कर सकते। इनकी जिंदगी तो सुबह से सांझ तक रोटी कमाने में ही व्‍यतीत हो जाती है। और इन मूर्तियों को बनाने में हजारों वर्ष लगे होंगे।

      क्‍या प्रयोजन होगा इतनी मूर्तियों का? किसने इन मूर्तियों को बनाया होगा, इतिहासविद् के सामने बहुत से सवाल थे।

      ऐसी ही एक जगह मध्‍य एशिया में है। और जब तक हवाई जहाज नहीं अपलब्‍ध था, तब तक उस जगह को समझना बहुत मुश्‍किल पडा। हवाई जहाज के बन जाने के बाद ही यह ख्‍याल में आया, कि वह जगह कभी जमीन से हवाई जहाज उड़ने के लिए एयरपोर्ट का काम करती रही होगी। उस तरह की जगह के बनाने का और कोई  प्रयोजन नहीं हो सकता, सिवाय इसके कि वह हवाई जहाज के उड़ने और उतरने के काम में आती रही हो। फिर वह जगह नहीं है। उसको बने हुए अंदाजन बीस हजार और पंद्रह हजार वर्ष के बीच को वक्‍त हुआ होगा। लेकिन जब तक हवाई जहाज नहीं बने थे तब तक तो हमारी समझ के बाहर की बात थी। हवाई जहाज बने, और हमने एयरपोर्ट बनाए, तब हमारी समझ में आया कि कभी एयरपोर्ट के काम की होगी ये जगह। जब तक यह नहीं था। तब तक तो सवाल ही नहीं उठता था। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि तीर्थ को हम न समझ पाएंगे जब तक कि तीर्थ पुन: आविष्‍कृत न हो जाए।

      अब जाकर उन ईस्‍टर आईलैंड की मूर्तियों है, उनके जो एयरव्‍यु, आकाश से हवाई जहाज के द्वारा जो चित्र लिए गये उनसे अंदाज लगया है कि वह इस ढंग से बनायी गई है, और इस विशेष व्‍यवस्‍था में बनाई गई है कि किन्‍हीं खास रातों में चाँद पर से देखा जा सकें। वह जिस ज्योमैट्री के जिन कोणों में खड़ी की गयी है, वह कोण बनाती है पूरा का पूरा। और अब जो लोग उस सबंध में खोज करते है, उनका ख्‍याल यह है कि यह पहला मौका नहीं है कि हमने दूसरे ग्रहों पर जो जीवन है, उसके संबंध स्‍थापित करने की कामना की है। इसके पहले भी जमीन पर बहुत से प्रयोग किए गए, जिनसे हम दूसरे ग्रहों पर अगर कोई जीवन, कोई प्राणी हो  तो उससे हमारा संबंध स्थापित हो सके। और दूसरे प्राणी-लोको से भी पृथ्‍वी तक संबंध स्‍थापित हो सकें, इसके बहुत से सांकेतिक इंतजाम किए है।
      यह जो बीस तीस फीट ऊंची मूर्तियां हे। ये अपने आप में अर्थपूर्ण नहीं है। लेकिन जब ऊपर से उड़कर उनके पूरे पैटर्न को देखा जाए, तब इनका पैटर्न किसी संकेत की सूचना देता है। वह संकेत चाँद से पढ़ा जा सकता है। पर जिन लोगों ने यह बनाया होगा—जब हम हवाई  जहाज में उड़कर न देख सके, तब तक हम कल्‍पना भी नहीं कर सकेंगे...तब तक वह हमारे लिए मूर्तियों से अधिक कुछ नहीं थी। ऐसी इस पृथ्‍वी पर बहुत सी चीजें है, जिनके संबंध में तब तक हम कुछ भी नहीं जान पाते, जब तक की किसी रूप में हमारी सभ्‍यता, उस घटना का पुन: आविष्‍कार न कर ले।

      अभी मैं दो तीन दिन पहले बात कर रहा था। तेहरान में एक छोटा सा लोहे का डिब्बा मिला था। फिर वह ब्रिटिश म्यूजियम में पडा रहा। ये कोई वर्षो उसने प्रतीक्षा की उस डिब्‍बे ने। वह तो अभी-अभी जाकर पता चला कि वह बैट्री है जो दो हजार साल पहले तेहरान में उपयोग में आती रही। मगर उसकी बनावट का ढंग ऐसा था। कि ख्‍याल में नहीं आ सका। लेकिन अब तो उसकी पूरी  खोज-बीन हो गई है। तेहरान में दो हजार साल पहले बैट्री हो सकती है। इसकी हम कल्‍पना नहीं कर सकते। इसलिए कभी सोचा नहीं इस तरह लेकिन अब तो उसमें पूरा साफ हो गया है। कि वह बैट्री ही है। पर अगर हमारे पास बैट्री न होती तो हम किसी भी तरह से इस डिब्‍बे को बैट्री खोज नहीं पाते। ख्‍याल भी नहीं आता, धारणा भी बनती।

      तीर्थ पुरानी सभ्‍यता के खोजें हुए बहुत-बहुत गहरे, संकेतिक, और बहुत अनूठे आविष्‍कार है। लेकिन हमारी सभ्‍यता के पास उनको समझने के सब रूप खो गए है। सिर्फ एक मुर्दा व्‍यवस्‍था रह गई है। हम उसको ढोए चले जा रहे है। बिना यह जाने कि वह क्‍यों निर्मित हुए, क्‍या उनका उपयोग किया जाता रहा। किन लोगों ने उन्‍हें बनाया क्‍या प्रयोजन था? और जो ऊपर से दिखाई पड़ता है वही सब कुछ नहीं है, भीतर कुछ और भी है जो ऊपर से कभी भी दिखाई नहीं पड़ता।

      पहली बात तो यह समझ लेनी चाहिए कि हमारी सभ्‍यता ने तीर्थ का अर्थ खो दिया है। इसलिए जो आप तीर्थ को जाते है वह भी करीब-करीब व्‍यर्थ जाते है। जो उसका विरोध करते है वह भी करीब-करीब व्‍यर्थ विरोध करते है। बल्‍कि विरोध करने वाला ही ठीक मालूम पड़ता है। वह भी ना समझ होने पर समझदार मालूम होता है। सही बात का उसे भी कुछ पता नहीं है। वह जिस तीर्थ का विरोध कर रहा ळ वह तीर्थ की धारणा नहीं है। यद्यपि वह तीर्थ जानेवाला जिस तीर्थ में जा रहा है वह भी तीर्थ की धारणा नहीं है। तो चार-पाँच चीजें पहले ख्‍याल में लेनी चाहिए।

      एक तो जैसे कि जैनों का तीर्थ है—सम्मत शिखर। जैनों के चौबीस तीर्थकर में से बाईस तीर्थ करों का समाधि स्‍थल है वह चौबीस में से बाईस तीर्थ करों ने सम्‍मेत शिखर पर शरीर विसर्जन किया है—आयोजित थी वह व्‍यवस्‍था। अन्‍यथा एक जगह पर जाकर इतने तीर्थ करों का चौबीस में से बाईस का जीवन अंत होना आसान मामला नहीं है। बिना आयोजन के। एक ही स्‍थान पर हजारों साल के लंबे फासले में अगर हम जैनों का हिसाब मानें और मैं मानता हूं कि हमें  जहां तक बन सके, जिसका हिसाब हो उसका मानने की पहले कोशिश करनी चाहिए, तब तो लाखों वर्षो का फासला है—उनके पहले तीर्थकर में और चौबीसवे तीर्थकर में। लाखों वर्षो के फासले पर एक ही स्‍थान पर बाई तीर्थ करों का जाकर शरीर को छोडना विचारणीय है।.......अगले भाग में...........
--ओशो (मैं कहता हुं  आंखन देखी)







(तीर्थ - 11) : अंतिम पोस्‍ट (वृक्ष के माध्‍यम से संवाद)

तीर्थ है, मंदिर  है, उनका सारा का सारा विज्ञान है। और उस पूरे विज्ञान की अपनी सूत्रबद्ध प्रक्रिया है। एक कदम उठाने से दूसरा कदम उठना है, दूस...